नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़, कलकत्ता : चुनावी मौसम आते ही राजनीतिक दल और राजनेता अपने चुनावी घोषणापत्र जारी करना शुरू कर देते हैं जिसमें एक सुनहरी तस्वीर पेश की जाती है और मतदाताओं को लुभाने की हर कोशिश में बहुत वादे किये जाते हैं। १९५२ ( 1952) में पहले लोकसभा चुनाव से लेकर ( 2024) २०२४ तक हर राजनितिक दलों द्वारा कितने घोषणापत्र जारी किये जा चुके हैं पर हमारी बदकिस्मती तो देखिये की अभी भी एक बड़ी आबादी को रोजमर्रा की बुनियादी जरूरतों बेरोजगारी, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा, कुपोषण से जद्दोजहद करना पर रहा है। क्या राजनीतिक दलों के घोषणापत्र चुनाव से पहले, उसके दौरान और बाद में कोई सार्थक भूमिका निभाते हैं? क्या वे किसी राजनितिक दल द्वारा नागरिकों को पेश किए गए विचारों, दृष्टिकोण और कार्यक्रमों के शक्तिशाली प्रतीक हैं या वे केवल प्रतीकात्मक हैं? चूंकि अधिकांश मतदाता अपना वोट डालने से पहले घोषणापत्र पढ़ने की जहमत नहीं उठाते, तो क्यों न घोषणापत्रों को गुमनामी के कूड़ेदान में फेंक दिया जाए? राजनीतिक विशेषज्ञ और रणनीतिकार चुनाव से पहले मतदाताओं का ध्यान खींचने के लिए घोषणापत्र तैयार करते हैं। इन घोषणापत्रों में वोट हथियाने के उद्देश्य से किए गए सभी प्रकार के बड़े-बड़े वादे किये जाते हैं। ऐसे घोषणापत्रों के कार्यान्वयन को बाध्य करने के लिए उपयुक्त कानून के अभाव में, आश्वासन केवल बयानबाजी बनकर रह जाते हैं। पिछले पांच दशकों में केंद्र एवं राज्यों में वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों दल सत्ता में रहे हैं लेकिन क्या आम इंसान की जीवन स्तर में कोई सुधार आया है। केंद्र एवं राज्यों में ढेरों नए कानून बने हैं, सरकारों ने कई राजनीतिक कदम उठाए हैं लेकिन आम नागरिकों के जीवन स्तर का मान और जीवन शैली में कोई खास उन्नति नहीं हुई है। राजनीतिक दल बहुत अच्छी तरह से जानते हैं की इन घोषणा पत्रों की कोई कानूनी संवैधानिक दायित्व नहीं है और ज्यादातर मतदाता इन घोषणापत्रों को अहमियत नहीं देते हैं और न ही बारीकी से इन घोषणा पत्रों को पढ़ने की जहमत उठाते हैं लेकिन फिर भी हर राजनितिक दल यह जानते हुये भी की इन घोषणाओं को लागू नहीं करेंगे फिर भी बड़े जोर शोर के साथ इनको पेश करते हैं? इन चुनाव घोषणापत्रों के पीछे का मनोविज्ञान क्या है?
चुनाव से पहले घोषणापत्रों के पीछे का मनोविज्ञान क्या है?
घोषणापत्रों को छापने और प्रचार की धूमधाम के पीछे के मनोविज्ञान को मतदाताओं की धारणाओं और राजनीतिक दल की सार्वजनिक छवि को आकार देने में उनकी भूमिका से जोड़ा जा सकता है। घोषणापत्र मतदाताओं के व्यवहार को उनके दृष्टिकोण और इरादों के साथ जोड़कर प्रभावित करते हैं और वे राजनितिक दलों के लिए अपने प्रतिद्वंद्वियों से खुद को अलग करने के लिए एक उपकरण के रूप में भी काम करते हैं। संक्षेप में घोषणापत्र एक रणनीतिक उपकरण है जिसका उपयोग पार्टियां अपनी प्रतिबद्धताओं को संप्रेषित करने और मतदाताओं को मनाने के लिए करती हैं। यह घोषणा पत्र बहुत ही सोची समझी राजनितिक रणनीति का हिस्सा हैं। वादों का क्या है वह तो तोड़ने के लिये ही किये जातें हैं । अगर हम थोड़ा हमारे देश के राजनितिक इतिहास के पन्नों को उलटें तो पायेंगे की घोषणापत्र अक्सर भुला दिए जातें हैं और चुनाव परिणामों के आ जाने के बाद इनकी कोई खास अहमियत भी नहीं रह जाती है।
निष्कर्ष : चुनावी घोषणापत्र राजनीतिक दलों के लिए कई उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं, आम धारणा के बावजूद कि राजनीतिक घोषणापत्रों को राजनीतिक दल गंभीरता से नहीं लेते हैं और बहुत हद तक इनके कार्यान्वयन पर बड़े प्रश्न चिन्ह खड़े हैं इसके बावजूद यह घोषणापत्र पार्टियों के लिए अपनी भविष्य की योजनाओं, प्रमुख मुद्दों पर कार्रवाई के तरीकों और वैचारिक दृष्टि को स्पष्ट करने का एक तरीका है। घोषणापत्रों को राजनितिक रणनीति और रणकौशल के हिसाब से एक शक्तिशाली प्रतीक माना जाता है जो राजनितिक दलों द्वारा एक सुनहरे भविष्य का मायाजाल आम मतदाताओं तक पहुंचाने में बहुत हद तक कामयाब रहता है। । विश्व स्तर पर राजनितिक घोषणापत्रों को गंभीर दस्तावेज़ माना जाता है जो किसी पार्टी की वैचारिक दृष्टि और कार्य योजना को बताता है। लेकिन शायद हमारे देश में राजनितिक दल इन घोषणा पत्रों को उतनी गंभीरता से नहीं लेते हैं। भले ही अधिकांश मतदाता अपना मतदान करने से पहले घोषणापत्र नहीं पढ़ते हैं, फिर भी वे अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करने में पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण बने रहते हैं। ज्यादातर राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में आर्थिक योजना, कल्याण और विकास एवं बुनियादी ढांचों पर बहुत अधिक महत्व दिया जाता है। अगर हम थोड़ा सूक्ष्म नजरिये से अवलोकन करें तो पहले चार दशकों में आर्थिक नियोजन के समाजवादी मॉडल पर जोर दिया गया था। बैंकों का राष्ट्रीयकरण, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम ( PSU) को प्रोत्साहित करना इत्यादि शामिल थे लेकिन १९९१ (1991) में आर्थिक उदारीकरण ने घोषणापत्रों में मुद्दों की प्रकृति को बहुत हद तक बदल दिया है। आज के राजनीतिक माहौल में, बेरोजगारी, रोजगार सृजन,आम इंसान के लिए गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा, किफायती गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य देखभाल, बुनियादी ढांचे का सकारात्मक सुधार,सार्वजनिक कार्यालयों में उचित एवं प्रभावी कार्यान्वयन जैसे मुख्य विकास पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय मुफ्त सुविधाओं जैसे मुफ्त बिजली / पानी की आपूर्ति, बेरोजगारों, दैनिक वेतन भोगी श्रमिकों और महिलाओं को मासिक भत्ता और साथ ही साइकिल, लैपटॉप, स्मार्टफोन आदि जैसे गैजेट को अधिक प्राथमिकता दी जा रही है। यह देखते हुए कि पिछले ३० (30) वर्षों में आर्थिक असमानता बहुत हद तक बढ़ी है, सब्सिडी के रूप में आम जनमानस को किसी प्रकार की राहत शायद अनुचित नहीं लेकिन वास्तव में अर्थव्यवस्था को देखते हुये मुफ़्त सुविधायें व्यापक आर्थिक स्थिरता के बुनियादी ढाँचे को कमज़ोर कर देती हैं। मुफ़्त सुविधाओं की राजनीतिक व्यय सही और उचित प्राथमिकताओं की दिशा ही बदलकर रख देतें हैं। मुफ्त सुविधायें सरकारी खजाने पर असर डालती हैं और हमारे देश के अधिकांश राज्यों की वित्तीय स्थिति मजबूत नहीं है और अक्सर राजस्व के मामले में उनके पास बहुत सीमित संसाधन होते हैं। यदि राज्य कथित राजनीतिक लाभ के लिए पैसा खर्च करते रहेंगे तो उनका वित्त गड़बड़ा जाएगा और राजकोषीय फिजूलखर्ची हावी हो जाएगी। राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (Fiscal Responsibility and Budget Management (FRBM) नियमों के अनुसार राज्य अपनी सीमा से अधिक उधार नहीं ले सकते हैं और किसी भी अतिक्रम को केंद्र और केंद्रीय बैंक द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। इसलिए जबकि राज्यों के पास इस बात पर लचीलापन है कि वे अपना पैसा कैसे खर्च करना चुनते हैं वे सामान्य परिस्थितियों में अपने घाटे की सीमा को पार नहीं कर सकते। बात इस बारे में नहीं है कि मुफ़्त सुविधायें कितनी सस्ती हैं बल्कि यह इस बारे में है कि वे लंबे समय में अर्थव्यवस्था, जीवन की गुणवत्ता और सामाजिक एकजुटता के लिए कितनी महंगी हैं। इसके बजाय हमें दक्षता की दौड़ के लिए प्रयास करना चाहिए। नवीन विचारों और समाधानों का उपयोग करके जिससे समाज का हर वर्ग आर्थिक, सामाजिक दृष्टि से उभर कर सामने आये। भारत एक बड़ा देश है और यहां अभी भी बड़ी संख्या में लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। देश की विकास योजना में सभी लोगों का समायोजन होना भी जरूरी है। आदर्श रूप से, संसाधनों का बेहतर समग्र उपयोग सुनिश्चित करने के लिए राज्य व्यय का एक अनुपात निर्धारित किया जाना चाहिए। संविधान सभा में डॉ. अम्बेडकर ने अपने अंतिम भाषण में आगाह किया था कि संविधान का कार्य केवल दस्तावेज़ पर निर्भर नहीं करता है। अंततः इसका प्रभाव उन लोगों पर निर्भर करता है जिन्हें इसे लागू करने का काम सौंपा गया है। उन्होंने यह भी कहा था की “कोई भी संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो,उसका खराब होना निश्चित है क्योंकि जिन लोगों को इसे लागू करने के लिए बुलाया गया है, वे बुरे लोग हैं। कोई संविधान चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो, वह तब अच्छा साबित हो सकता है जब उसे लागू करने के लिए जिन लोगों को बुलाया जाए वे अच्छे लोग हों”। डॉक्टर अंबेडकर की दी गयी चेतावनी को समझें तो एक बात तो बिलकुल स्पष्ट है की यह बड़ी बात नहीं की घोषणापत्रों में कितने सुनहरे सपने दिखाए जा रहें हैं बड़ी बात तो यह है की निति निर्धारण कर्ता और कार्यान्वयन कर्ता कितनी गंभीरता से सही मुद्दों को समयबद्ध तरीके से संबोधित कर रहें हैं। और यह आशा भी रहेगी की शायद आने वाले कल में घोषणापत्रों में उल्लिखित सुनहरे सपने साकार हो जायें ?
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