नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़, पूर्वी चंपारण : गठबंधन राजनीति का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि भारतीय दलीय शासन प्रणाली में संसदीय लोकतंत्र। गठबंधन की राजनीति हमारे स्वतंत्र लोकतंत्र के आकार लेने से पहले ही प्रचलन में थीं, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच दिसंबर १९१६ (1916) में लखनऊ में आयोजित दोनों पार्टियों के संयुक्त सत्र में गठबंधन सहयोगी के रूप में समझौता हुआ था। हमारी पहली सरकार में ( पहला आम चुनाव होने तक) नेहरू मंत्रिमंडल में विविध विचारधाराओं के सदस्य थे। इसलिए, देश को पार्टी प्रणाली की अपनी यात्रा की शुरुआत से ही गठबंधन सरकार का अनुभव रहा है। पहले आम चुनाव के बाद से लगातार आम चुनावों में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिलता रहा और देश की राजनीतिक व्यवस्था गठबंधन सरकार के लोकाचार को भूल गई। लेकिन साठ के दशक के उत्तरार्ध में राज्यों में कई गठबंधन सरकारें उभरने लगीं। गठबंधन मूल रूप से विचारधारा से ज्यादा सत्ता साझा करने की आवश्यकता से उत्पन्न होता है और यद्यपि यह संघवाद के लोकाचार का पालन करने या उसमें योगदान देने जैसा प्रतीत हो सकता है। वास्तव में, गठबंधन सहयोगी अपनी पार्टी के हितों को आगे बढ़ाने के लिए जितना संभव हो उतना लाभ उठाने की कोशिश में मशगूल रहते हैं। केंद्र में सत्ता साझा करने वाले क्षेत्रीय दलों में अक्सर व्यापक राष्ट्रीय दृष्टिकोण का अभाव अक्सर एक ठोस राष्ट्रीय दृष्टिकोण और हित की कीमत पर अपने क्षेत्रीय आकांक्षाओं के पक्ष में काम करते हैं और अपने क्षेत्रीय एजेंडे को आगे बढ़ाने और अपने राजनीतिक स्थिति को मजबूत करने के फेर में रहते हैं । क्षेत्रीय राजनीतिक बाध्यता कभी- कभी बहुत ही नाजुक परिस्थितियों को जन्म देती है और अनावश्यक राजनीतिक संकट पैदा कर देती है। इसलिए,गठबंधन एक मजबूरी है और राष्ट्रीय दल अक्सर क्षेत्रीय दलों से संख्या की मजबूरी की वजह से गठबंधन करने पर मजबूर हो जाते हैं अगर किसी भी राष्ट्रीय दल के पास संख्या की कमी ना हो तो शायद ही वह क्षेत्रीय दलों से समझौता करें। राष्ट्रीय दल या प्रमुख दल का समर्थन करने वाले क्षेत्रीय दल संघवाद को मजबूत करने के लिए नहीं बल्कि अपने हितों की पूर्ति के लिए इसका समर्थन करते हैं। यह समर्थन या साथ छोड़ने का समीकरण क्षेत्रीय हितों की आपूर्ति पर निर्भर करता है और इस समर्थन या साथ छोड़ने की पूरी प्रक्रिया में राष्ट्रीय दल (अग्रणी पार्टी) हमेशा दरकिनार हो जाती है। क्षेत्रीय दल अक्सर अपने आप को राजा निर्माता (King maker ) होने का भ्रम पालते हैं और कभी-कभी अपने अनियमित रवैये और अव्यावहारिक मांगें रखकर सरकार को खतरे में डाल देते हैं और जब वे छोड़ने का फैसला करते हैं तो वे नेता या किसी एक दल पर दोष मढ़कर बाहर निकलने का एक आदर्शवादी रास्ता अपनाने का प्रयास करते हैं। देश ने गठबंधनों को आते और जाते बहुत बार देखा है। गठबंधनों में शामिल और छोड़ने का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि गठबंधन का इतिहास। लेकिन दूसरी तरफ २०१४ (2014) और २०१९ (2019) में निर्णायक जनादेश ने अर्थव्यवस्था के व्यापक बाजार उन्मुख सुधारों को सुविधाजनक नहीं बनाया है जो उच्च विकास दर को बनाए रखने के लिए जरूरी थे। नोटबंदी जैसे एकतरफा फैसले का भी कोई खास असर नज़र नहीं आया।
उपसंहार : राजनितिक गठबंधन न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में राजनीतिक पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा रहे हैं। तो उस लिहाज से नव गठित गठबंधन कोई नई प्रक्रिया नहीं है। १९८९ (1989) से २०१४ (2014) तक हमारे देश में गठबंधन सरकारों का शासन रहा है। अगर हम गठबंधन सरकारों के प्रदर्शन पर निरपेक्ष नज़र डालें तो उनका प्रदर्शन कुछ कम भी नहीं था। भारतीय अर्थव्यवस्था का खुल जाना अपने आप में एक अच्छी और नयी पहल थी जिसने घरेलू उद्योगों को प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ बेहतर नये तकनीकी कौशल भी प्रदान किये। भारत एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति के रूप में अपने आप को उभारने में कामयाब रहा। भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ी से आगे बढ़ी डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने एक मजबूत अर्थव्यवस्था का आधार स्थापित किया और गति प्रदान की। आर्थिक दृष्टि से आज देश की अर्थव्यवस्था ३.७५ ( 3.75) ट्रिलियन डॉलर जीडीपी ( G.D.P) के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, जर्मनी और जापान के बाद दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरी है उसकी आधारशिला डॉ,मनमोहन सिंह के दस वर्षों के कार्यकाल में ही डाली गयी थी। और यह स्पष्ट संकेत है की गठबंधन दलों द्वारा उचित सफलता और दृढ़ता के साथ शासन किया गया था। २०१९ (2019) में भाजपा के खिलाफ विपक्षी गठबंधन देश के लोगों को आश्वस्त नहीं कर सका और जनादेश प्राप्त करने में बुरी तरह विफल रहा यह एक हकीकत थी और अब विपक्षी दलों ने इंडिया (I.N.D.I.A) का गठन किया है. यह भी एक हकीकत है। भाजपा जैसी पार्टी के लिए गठबंधन की जरूरत मोदी जैसे मजबूत नेता को भी महसूस हो रही है यह भी हकीकत है। इसलिए इसमें कुछ भी गलत नहीं है अगर विपक्षी दलों ने गठबंधन बनाया है तो। जीवंत लोकतंत्र का सार एक मजबूत विपक्ष में निहित है जो सरकार के कामकाज के लिए नियंत्रण और संतुलन के रूप में कार्य करता है। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस और इंडिया (I.N.D.I.A) राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सही दिशा और प्रमुखता से उभरें। एक बड़ा सवाल उठाया जा रहा है कि क्या विपक्षी दलों का यह गठबंधन टिक पाएगा? हो सकता है और नहीं भी हो सकता। अगर हम थोड़ा मुड़कर देखें की पिछले २५ ( 25) वर्षों में भारत पर गठबंधन सरकारों का शासन रहा है और उनकी सफलता का अनुपात भी अच्छा रहा है। इसलिए गठबंधन और गठबंधन का अस्तित्व एक वास्तविकता है। एक और प्रश्न क्या गठबंधन सरकार राष्ट्र के हित में कार्य करेगी। क्यों नहीं? क्या गठबंधन सरकार के २५ (25) वर्षों के शासन के दौरान भारत का विघटन हो गया? एक गठबंधन सरकार ने अर्थव्यवस्था को खोलने से लेकर आर्थिक प्रतिबंधों की धमकी के बावजूद परमाणु परीक्षण किया। इसी एक गठबंधन सरकार ने सफलता के साथ कारगिल युद्ध भी लड़ा। देश कमजोर नहीं हुआ बल्कि डॉ. मनमोहन सिंह की गठबंधन सरकार ने जबरदस्त गति के साथ एक मजबूत और स्थिर अर्थव्यवस्था का आधार तैयार किया। एक मजबूत सरकार का मतलब अधिक शासन या बेहतर शासन होना जरूरी नहीं है। मणिपुर में डबल इंजन वाली मजबूत सरकार के बावजूद हिंसा हो रही है। एक मजबूत एक-दलीय बहुमत वाली सरकार होने के बावजूद हमारा देश बेरोजगारी, बाहरी ऋण में वृद्धि, राजकोषीय घाटा,सबसे कम रुपये का मूल्य अब तक का सबसे अधिक ईंधन मूल्य का सामना कर रहा है। प्रजातंत्र में यह माने नहीं रखता की एक राजनेता या राजनितिक दल क्या सोच रहा है पर जमीनी हकीकत पर आधारित आम इंसान की धारणा ही सर्वोपरि है। आने वाले २०२४ (2024 ) में भाग्य विधाता (आम इंसान ) कांग्रेस और नव गठित गठबंधन इंडिया (I.N.D.I.A) को वोट देंगे या नहीं यह तो नहीं पता पर देश के लोग अपने निर्णय, समझ और वर्तमान व्यवस्था के मूल्यांकन के आधार पर लेंगे इसमें कोई दो राय नहीं है । जिन लोगों ने यूपीए और भाजपा दोनों के शासन काल को देखा है वह यह निर्णय लेने के लिए बेहतर स्थिति में होंगे। लेकिन सत्ता में इंडिया गठबंधन या भाजपा जो भी आये उस सरकार को उद्देश्यपूर्ण समयबद्ध और प्रभावी तरीके से बुनियादी मुद्दों – बेरोजगारी, भूख, भय, निरक्षरता, कुपोषण और अभाव से मुक्त भारत बनाने की दिशा में काम करने की सख्त जरूरत है।
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