नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़, कलकत्ता : लोकतंत्र में चुनाव एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह लोकतंत्र का महापर्व है जिसमे आम नागरिक मतदान के माध्यम से देश चलाने का भार निश्चित करते हुये अपना जनादेश रखते हैं। हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के साथ- साथ लगभग १४० (140) करोड़ की आबादी वाला देश है और इस चुनावी प्रक्रिया में कुल आबादी का ७०% (70%) लगभग ९७ (97) करोड़ लोग अपना मताधिकार प्रयोग करेंगे। २०२४(2024 )का आम चुनाव लोकसभा के ५४३ (543) सदस्यों को चुनने के लिए सात चरणों में हो रहें हैं जो १९ (19) अप्रैल से १ (1 ) जून २०२४ (2024) तक होंगे और वोटों की गिनती की जाएगी और नतीजे ४ (4) जून २०२४ (2024) को घोषित किए जाएंगे। इतने बड़े पैमाने पर चुनावी प्रक्रिया को सही तरीके से अंजाम देना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। इस चुनावी प्रक्रिया को सही और कारगर तरीके से अंजाम देने में चुनाव आयोग एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जनशक्ति और संसाधनों का उपयोग करके यह सुनिश्चित करता है की देश की विशाल आबादी के मतदान का अधिकार बरकरार रहे। हालांकि, इतने बड़े पैमाने पर चुनाव आयोजित करने में बड़े पैमाने पर वित्तीय लागत भी आती है।
लोकसभा चुनाव का वित्तीय लागत
पिछले कुछ वर्षों में लोकसभा चुनाव कराने में होने वाला खर्च लगातार बढ़ा है। लागत में इस वृद्धि को विभिन्न कारकों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिसमें मतदाताओं की संख्या में वृद्धि और विकसित अभियान रणनीतियों, विशेष रूप से सोशल मीडिया पर बढ़ता खर्च शामिल है। अगर हम आजादी के बाद पहला लोकसभा चुनाव १९५१-१९५२ (1951-52) जो ६८ (68) चरणों में चला इस चुनाव की वित्तीय लागत १०.५ (10.5) करोड़ रुपये थी। पहले आम चुनाव में ५३ (53) पार्टियों के १,८७४ (1,874) उम्मीदवार ४०१ (401) निर्वाचन क्षेत्रों (दो सदस्यीय सीटों सहित) कुल ४८९ ( 489) सीटों पर चुनाव लड़ रहे थे, जिसके लिए १९६,००० (196,000) मतदान केंद्रों की आवश्यकता पड़ी थी। २०१९ (2019) में ये आंकड़े बढ़ कर – ६७३ (673) पार्टियों के लगभग ८, ०५४ ( 8,054) उम्मीदवार ५४३ (543) निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव लड़ रहे थे, जिसके लिए 1.037 मिलियन मतलब १०, ३७०,००० (10,370,000) लाख मतदान केंद्रों की आवश्यकता पड़ी थी। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के अनुसार, २०१९ (2019) में तेजी से आगे बढ़ते हुए चुनावी वित्तीय लागत ५०,००० (50,000) करोड़ तक पहुंच गई है। पिछले वर्षों के रुझानों के आधार पर २०२४ (2024) के चुनाव में वित्तीय लागत लगभग दोगुनी होने की उम्मीद है। शायद यह बढ़कर १,००,००० ( 1,00,000) करोड़ रुपये की राशि तक पहुंच सकती है।
चुनाव आयोग चुनावों के दौरान कैसे खर्च करता है?
केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित चुनाव आयोग प्रशासनिक लागत वहन करता है, जिसमें मतदान कर्मियों की तैनाती, मतदान केंद्र स्थापित करना, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM ) खरीदना, मतदाता शिक्षा अभियान और मतदाता पहचान पत्र जारी करना शामिल है। २०२३-२०२४ ( 2023-2024) के बजट में अकेले ईवीएम मशीन ( EVM) के बजट में पर्याप्त वृद्धि देखी गई है। २०२४ (2024) का लोकसभा निर्वाचन सात चरणों में आयोजित किया जाएगा जो ४४ (44) दिनों की लंबी अवधि तक चलेगा। पहला चरण १९ (19) अप्रैल से शुरू हो चूका है, इसके बाद क्रमशः २८ (26) अप्रैल,७ (7) मई, १३ (13) मई, २० (20) मई, २५ (25) मई और १ (1) जून को चुनावी प्रक्रिया ख़त्म होगी। चुनावी परिणाम ४ (4) जून को घोषित किए जाएंगे। ४४ (44) दिनों तक चलने वाला २०२४ (2024) का चुनाव सत्र १९५१-५२ (1951-52) में पहले लोकसभा चुनाव के बाद से अब तक का सबसे लंबा चुनाव होगा। हमारे देश का पहला लोकसभा चुनाव २५ (25) अक्टूबर 1951से २१ (21) फरवरी १९५२ (1952) तक चला था और ६८ (68) चरणों में आयोजित किया गया था जिसमें अभूतपूर्व १० (10)करोड़ पचास लाख (१०५ -105 मिलियन) नागरिकों ने अपने नए प्राप्त मतदान अधिकारों का प्रयोग किया था।
निष्कर्ष : हमारे देश में लोकतंत्र की लागत एक बहुआयामी मुद्दा है, जिसमें चुनाव के वित्तीय व्यय, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के आर्थिक निहितार्थ और एक मजबूत लोकतांत्रिक प्रणाली को बनाए रखने से जुड़ी सामाजिक लागत शामिल है। चुनावी वित्तीय पहलू विशेष रूप से दृष्टि आकर्षण करते हैं। अगर हम २०१९ ( 2019) में हुये आम चुनाव को वित्तीय दृष्टि से देखें तो शायद यह आम चुनाव इतिहास में सबसे महंगा चुनाव रहा है जो एक वैश्विक प्रवृत्ति को दर्शाता है जहां राजनीति में धन का प्रवाह बहुत जोरों से बढ़ रहा है। चुनावी खर्चों में यह वृद्धि चुनावी नतीजों पर धन के प्रभाव और कुछ हद तक भ्रष्टाचार की संभावना को भी नाकारा नहीं जा सकता है। भारतीय राजनीति में पैसे की भूमिका, राजनीतिक व्यवस्था के माध्यम से धन के प्रवाह के अपारदर्शी तरीकों और राजनीतिक वित्त को विनियमित करने में आने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डालती है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये आंकड़े चुनावों के आयोजन की लागत का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो लोकसभा सदस्यों और विधायी प्रक्रिया से संबंधित कुल खर्चों का सिर्फ एक पहलू है। लोकसभा सदस्यों पर होने वाली वास्तविक लागत में उनके वेतन, भत्ते और संसद के कामकाज से संबंधित अन्य खर्च भी शामिल होंगे। हालाँकि, ये विवरण आम तौर पर सरकार और संसदीय निकायों द्वारा वार्षिक बजट दस्तावेजों और रिपोर्टों में प्रकट किए जाते हैं। इन खर्चों के पूर्ण दायरे को समझने के लिए पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न बजटीय आवंटन और वित्तीय विवरणों के व्यापक विश्लेषण की आवश्यकता है। लोकतंत्र के लिए निहितार्थ गहरे हैं (The implications for democracy are profound) क्योंकि धन की बाढ़ समान प्रतिनिधित्व पर वित्तीय शक्ति को प्राथमिकता देकर चुनावी लोकतंत्र की नींव को शायद कुछ हद तक कमजोर करने का जोखिम उठा रही है ।
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