नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़, पटना : लंबे समय से सत्ता विरोधी लहर भारतीय चुनावों में एक महत्वपूर्ण कारक साबित हुई है और सत्तारूढ़ दल को हमेशा इस नुकसान का सामना करना पड़ता है। सत्ता विरोधी लहर ( Anti-Incumbency) से तात्पर्य उस अवधि से है जिसके दौरान कोई अधिकारी पद पर रहता है। सत्ता-विरोधी लहर को अधिक से अधिक संभावनाओं पर आधारित अवधारणा कहा जा सकता है। हालाँकि अक्सर यही अवधारणा काफी हद तक राजनितिक दलों के भाग्य का फैसला करती हैं। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार सत्ता-विरोधी लहर के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष पहलू भी हैं । प्रत्यक्ष लागत केंद्र में सत्ताधारी दल के साथ संबंध का सत्ताधारी के भाग्य पर पड़ने वाला प्रभाव लेकिन राज्य को नियंत्रित करने वाले राजनितिक दल का प्रभाव भी बहुत हद तक यह तय करती है कि मतदाता राष्ट्रीय चुनावों में कैसे मतदान करें। इसके अलावा,सत्ता विरोधी भावनाएँ निर्वाचित नेता के प्रति मतदाताओं की निराशा और कुछ मामलों में परिवर्तन की इच्छा से भी उत्पन्न होती हैं। २०२४ ( 2024) का आम चुनाव लगभग बिलकुल ही नजदीक आ गया है । सत्ता विरोधी लहर के साथ -साथ उपलब्ध रिपोर्टों के अनुसार उन कारकों पर नजर डालें जो आगामी लोकसभा चुनाव को काफी हद तक प्रभावित करने वाले हैं।
आने वाले आम चुनाव को प्रभावित करने वाले कारक
तीन नए कारक उभरकर आ रहें हैं जो आने वाले चुनाव परिणामों को बहुत हद तक प्रभावित करेंगे । वह हैं शेयर बाजार के निवेशक, सोशल मीडिया उपयोगकर्ता और पहली बार मतदाता। कुछ साल पहले तक यह समूह उतना प्रभावी ना रहा हो लेकिन आज के सन्दर्भ में और संख्या के नजरिए से यह समूह बहुत हद तक आने वाले आम चुनाव को प्रभावित करने वाले हैं ।
शेयर मार्केट का आम चुनाव पर प्रभाव
नेशनल स्टॉक एक्सचेंज ऑफ इंडिया लिमिटेड (NSE) मुंबई में स्थित भारत के प्रमुख स्टॉक एक्सचेंजों में से एक है। एनएसई (NSE) विभिन्न वित्तीय संस्थानों जैसे बैंकों और बीमा कंपनियों के स्वामित्व में है। कैलेंडर वर्ष २०२२ (2022) के लिए कारोबार किए गए अनुबंधों की संख्या के हिसाब से यह दुनिया का सबसे बड़ा डेरिवेटिव ( Derivative) एक्सचेंज है और ट्रेडों की संख्या के हिसाब से नकद इक्विटी (Equity) में तीसरा सबसे बड़ा है। जनवरी २०२४ (2024) तक कुल बाजार पूंजीकरण के हिसाब से यह दुनिया का ७ (7)वां सबसे बड़ा स्टॉक एक्सचेंज है। बाजार पूंजीकरण, जिसे कभी-कभी मार्केट कैप भी कहा जाता है, सार्वजनिक रूप से कारोबार करने वाली कंपनी के स्टॉकधारकों के स्वामित्व वाले बकाया सामान्य शेयरों का कुल मूल्य है। सभी एनएसई-सूचीबद्ध फार्मों का कुल बाजार पूंजीकरण $4 ट्रिलियन या 334.7 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गया है। रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में डीमैट (Demat) खाताधारकों की संख्या लगातार बढ़ रही है २०२२ (2022) में जहाँ ८.४ (8.4) करोड़ खाते थे वही जनवरी २०२३ (2023) में ११ (11) करोड़ खाते बन गये हैं और इन आकड़ों को पकड़ें तो लगभग ११ करोड़ वोटर इस स्टॉक मार्केट लेनदेन से सीधे तौर पर जुड़ गये हैं और आने वाले आम चुनाव में मतदान का हिस्सा बनने वाले हैं और इनकी सोच सीधे तौर पर चुनावी परिणामों पर असर डालेंगी।
सोशल मीडिया उपयोगकर्ता और पहली बार मतदाता का आम चुनाव पर प्रभाव
हाल के वर्षों में केंद्र सरकार की डिजिटल इंडिया पहल से प्रेरित इंटरनेट कनेक्शन और पहुंच की बढ़ी हुई उपलब्धता सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं में एक अच्छी खासी वृद्धि आयी है। इंटरनेट की पहुंच बढ़ रही है और लगभग ३४ (34) प्रतिशत से अधिक भारतीय इंटरनेट तक पहुंचने में सक्षम हैं। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार ५०० (500) मिलियन से अधिक यानी ५० (50) करोड़ भारतीय विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर सक्रिय हैं। मतदाता के संख्याओं के हिसाब से लगभग आधे भारतीय मतदाता सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। सोशल मीडिया के आकार और पैठ का अंदाजा हाल के आईपीएल (IPL) मैचों से लगाया जा सकता है। आईपीएल टीमों ने ६० (60) मिलियन लगभग ६ ( 6 ) करोड़ से अधिक लाइक्स ( Likes) दर्ज किए। इस ५० (50) करोड़ सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं में लगभग १३० (130) मिलियन यानी १३ (13) करोड़ उपयोगकर्ता १८ (18) से २४ (24) आयु वर्ग के हैं यानी ये सभी पहली बार मतदाता हैं। दुनिया भर के लोकतंत्र अपने चुनावों पर सोशल मीडिया के प्रभाव पर विचार कर रहे हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में मतदाता जानकारी एक महत्वपूर्ण निवेश (Input) है। समय के साथ-साथ सोशल मीडिया बहुत ही महत्वपूर्ण साधन बनकर उभर रहा है। सोशल मीडिया पारंपरिक मीडिया से इस मायने में अलग है कि यह उपयोगकर्ताओं को ‘क्षैतिज संचार’ में संलग्न होने की अनुमति देता है ( व्यक्तियों के बीच दो-तरफा सूचना प्रसारण की सुविधा) कोई व्यक्ति सोशल मीडिया पर जानकारी प्राप्त करने के अलावा तुरंत अपनी राय भी साझा कर सकता है और यह त्वरित पहचान व्यक्ति को सोशल मीडिया पर बातचीत करने और उस पर भरोसा करने के लिए प्रोत्साहित करती है। पारंपरिक मीडिया में मुख्य रूप से ‘ऊर्ध्वाधर (एक तरफ़ा) संचार’ होता है – जहां सूचना बिना किसी बातचीत के एक सामान्य स्रोत से प्रसारित होती है। इसके विपरीत, सोशल मीडिया में ऊर्ध्वाधर( (एक तरफ़ा)) और क्षैतिज ( दो-तरफा) दोनों प्रकार के संचार होते हैं और यही कारण है कि सोशल मीडिया ने सूचना वितरण और धारणा बनाने दोनों में अपनी उपस्थिति इतनी गति से बढ़ा दी है। आज के दौर में वोटिंग प्रक्रिया में सोशल मीडिया मतदाताओं के निर्णय लेने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है और इसी बात को मद्दे नज़र रखते हुये राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार सोशल मीडिया पर एक उम्मीदवार की दृश्यता और पहुंच को व्यापक रूप से एक सफल चुनावी अभियान का एक महत्वपूर्ण तत्व माना जा रहा है। इसके अलावा, पारंपरिक समाचार माध्यमों पर मतदाताओं की निर्भरता और देखने की संख्या (कामकाजी वर्ग -working class) में लगातार कम हो रही है, जिससे सोशल मीडिया का महत्व और निर्भरता और भी बढ़ गया है।
अन्य कारकों का आम चुनाव पर प्रभाव
किसानों का वोट भी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इकाई के हिसाब से किसान मतदान प्रक्रिया का एक बड़ा हिस्सा बने हुये हैं। इसके अलावा धर्म और जाति समूहों ने ऐतिहासिक रूप से चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। फरवरी-मार्च २०२२ (2022) में सभी की निगाहें यूपी चुनावों पर थीं क्योंकि राज्य में एक बड़ा कृषक समुदाय है, खासकर पश्चिमी भाग के जिलों में जाट समुदाय के बीच। किसानों के लगातार आंदोलन और विरोध के बावजूद २०२२ (2022) के उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा ने महत्वपूर्ण जीत हासिल की। यह जीत बिलकुल स्पष्ट करता है की कारक और चुनावी रसायन में बहुत फर्क है।
उपसंहार :
चुनाव मतदाताओं की इच्छा का लोकप्रिय प्रदर्शन हैं वह पूर्वनियत राज्याभिषेक नहीं हैं। २०१४ (2014) और २०१९ (2019) में भारतीय जनता पार्टी खंडित विपक्ष के कारण संसद में एकल-दलीय बहुमत प्राप्त करने में समर्थ हुयी थी। कई निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा को एकीकृत विपक्ष का सामना नहीं करना पड़ रहा था, बल्कि कई विपक्षी दल एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे थे जितना कि वे भाजपा से लड़ रहे थे और इस विपक्षी वोट के बिखराव का सीधा फायदा भाजपा को हुआ। हमारे देश की चुनावी प्रक्रिया ( first-past-the-post ) फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट है। चुनावों में एक उम्मीदवार को अपने निर्वाचन क्षेत्र को जीतने के लिए बहुमत वोट हासिल करने की आवश्यकता नहीं होती है उन्हें बस उपविजेता से अधिक वोट चाहिए। संसद में लगातार दो चुनावी हार के बाद विपक्ष पिछली विफलताओं से सीखने के लिए प्रतिबद्ध दिख रहा है। जुलाई में दो दर्जन से अधिक विपक्षी दलों ने एक नए विपक्षी गठन इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायन्स (या संक्षेप में इंडिया) के निर्माण की घोषणा की। सिर्फ गठबंधन करने से चुनावी जीत सुनिश्चित नहीं होगी, राजनीतिक नेतृत्व को इसके साथ कुछ चुनावी जमीनी रसायन जोड़ने की भी जरूरत है इंडिया गठबंधन को शासन के लिए एक वैकल्पिक दृष्टिकोण भी पेश करना चाहिए जो इसे भाजपा से अलग करता हो। इंडिया गठबंधन नेतृत्वहीन है यह गठबंधन के लिए एक स्पष्ट नकारात्मक बिंदु है। विपक्ष यह कहने में तथ्यात्मक रूप से सही है कि भारत एक संसदीय लोकतंत्र है जिसमें अंतिम प्रधान मंत्री को उस पार्टी (या गठबंधन) द्वारा चुना जाएगा जिसके पास लोकसभा में बहुमत है लेकिन एक लोकप्रिय सत्ताधारी के सामने, भारतीय गठबंधन के बर्खास्त होने का जोखिम तब तक है जब तक कोई ऐसा नेता नहीं उभरता जो नरेंद्र मोदी जैसे कद्दावर नेता को जवाब देने की पेशकश करता हो। गठबंधन का अंकगणित स्वचालित रूप से गठबंधन चुनावी रसायन उत्पन्न नहीं करता है। कागज पर विपक्षी गठबंधन के पक्ष में चुनावी अंकगणित है लेकिन कागज पर अंकगणित व्यवहार में चुनावी रसायन प्रक्रिया की कमी का विकल्प नहीं है। चुनावी कारक तो बहुत हैं और शुक्ष्म नजरिये से देखें तो शायद और भी कई क्षेत्रीय और राष्ट्रीय कारक उभर कर सामने आयेंगे लेकिन एक बात जो पिछले दो चुनावों में बहुत स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आयी वह है सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका। एक आंकलन के अनुसार आने वाले २०२४ (2024) के लोकसभा चुनाव में लगभग 200 (२००) निर्वाचन क्षेत्रों पर सोशल मीडिया द्वारा सबसे अधिक प्रभावित होने की संभावना है। चुनावी राजनीति का मूल्यांकन करने और उसे आत्मसात करने का रसायन इस बात पर निर्भर करता है कि राजनितिक नेतृत्व मुद्दों को कितने जमीनी स्तर पर वस्तुनिष्ठ और समयबद्ध तरीके से संबोधित कर रहे हैं। आखिर में फैसला तो आम इंसान (भाग्यविधाता) ही लेंगें।
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