नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़, पश्चिम बंगाल : ४२ (42) लोकसभा सीटों के साथ पश्चिम बंगाल उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद संसद में तीसरा सबसे बड़ा प्रतिनिधिमंडल भेजता है। इतने बड़े पैमाने पर सांसद भेजने के बावजूद बंगाल विभिन्न केंद्रीय योजनाओं के समर्थन और कार्यान्वयन से वंचित क्यों है? प्रश्न यह खड़ा होता है की इतनी बड़ी संख्या में चुने हुये सांसद क्या राज्य की अग्रगति के लिए कुछ सोचते हैं ? अगर सही दिशा में सोचते तो शायद राज्य आज इस कगार पर नहीं खड़ा होता। इस गंभीर मुद्दे को राज्य के सभी राजनितिक दलों द्वारा सही दिशा में संबोधित किया जाना आवश्यक हो जाता है जब देश १८ (18th) लोकसभा को चुनने की कगार पर खड़ा है।
पश्चिम बंगाल लोकसभा प्रतिनिधित्व कालक्रम
वाम मोर्चा, जिसने १९७१ (1971) और २००४ (2004) के बीच लगातार दस आम चुनावों में राज्य की अधिकांश लोकसभा सीटें जीतीं और कई गैर-कांग्रेसी गठबंधनों को खड़ा करने में मदद की और पहली मनमोहन सिंह सरकार को बाहर से समर्थन भी प्रदान किया था । २००४ ( 2004) से २०१९ (2019) तक तृणमूल कांग्रेस को लोकसभा की अच्छी खासी सीटें मिली हाँ एक बात जरूर है की ममता बनर्जी के रेल मंत्री के दौर के दौरान बंगाल को कई नए रेलवे प्रकल्प मिले यह दूसरी बात है की उनके रेल मंत्री के पद से निकलने के बाद इन प्रकल्पों में खास कुछ इजाफा नहीं हुआ। अगर हम वाम मोर्चा और तृणमूल कांग्रेस की केंद्रीय सरकार में भागीदारी देखें तो दोनों राजनितिक दलों ने केंद्रीय सरकार से कुछ वक़्त के बाद अपना समर्थन वापस ले लिया था। वाम मोर्चा ने भारत-संयुक्त राज्य अमेरिका नागरिक परमाणु समझौते को लेकर अपना सरकार से समर्थन वापस ले लिया था और तृणमूल कांग्रेस ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (Foreign direct investment) एलपीजी और पेट्रोलियम मूल्य में वृद्धि को लेकर सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था। समर्थन करने और वापस लेने के मुद्दे को लेकर दोनों राजनितिक दल “समर्थन वापसी के पक्ष” में अपना तर्क रख सकते हैं, अगर हम थोड़ा राजनितिक पहलुओं को सूक्ष्म तरीके से देखें तो दोनों वक़्त केंद्र सरकार को थोड़ी असुविधा तो हुई पर वह सरकार बचाने और अपने घोषित एजेंडे को कार्यान्वयन करने में सफल रहे। पर सबसे ज्यादा नुकसान बंगाल के आम नागरिकों का हुआ जो केंद्रीय प्रकल्पों से वंचित रह गये। आम नागरिक अपने इलाके के उन्नति को मद्दे नज़र रखते हुये राजनितिक दलों के उम्मीदवारों को चुनते हैं लेकिन अगर यही उम्मीदवार अगर अदूरदर्शी राजनीतिक एजेंडे पर आम नागरिकों की उन्नति और भलाई को नजरअंदाज करते रहते हैं तो उसका बुरा परिणाम तो आखिर में आम इंसान को ही भुगतना पड़ता है। पिछले ३४ वर्ष ( वाम मोर्चा का शासन) तो एकल सूत्री एजेंडा(Single point agenda ) पर चलता था “केंद्रीय वंचना के खिलाफ सभी लोग एकजुट हों” साल में दो बार इस मुद्दे पर ब्रिगेड परेड ग्राउंड में समावेश और एक दो बार केंद्र सरकार की “जनविरोधी नीतियों के खिलाफ भारत बंद का एलान” इससे भारत तो नहीं पर बंगाल का जनजीवन पूरी तरह ठप हो जाता था। उस वक़्त केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और लोकसभा में अच्छी संख्या में वाम मोर्चा का प्रतिनिधित्व होने के बावजूद कितने केंद्रीय प्रकल्प पश्चिम बंगाल में कार्यान्वित किये गये इसपर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह जरूर खड़ा हो रहा है ? और अब वाम मोर्चा और कांग्रेस बंगाल में जिगरी दोस्त बने घूम रहें हैं क्या यह वैचारिक गठबंधन है या अवसरवादी गठबंधन है यह तो वक़्त ही बतायेगा ? कुछ हद तक बंद को छोड़कर लगभग एक ही तरह का एजेंडा तृणमूल कांग्रेस भी अपना रही है। २०१९ (2019) के लोकसभा चुनाव में बंगाल ने भारतीय जनता पार्टी को १८ (18) सांसद चुन कर दिए पर भाजपा ने बंगाल के एक भी सांसद को पूर्ण मंत्री का ओहदा नहीं दिया । हाँ कॉस्मेटिक स्पर्श के तहत कुछ राज्य मंत्री बना दिये गये जिनका निति निर्धारण में कोई खास अहमियत ही नहीं है। २४ (24) अक्टूबर १९८४ (1984) को देश का पहला मेट्रो प्रणाली कोलकाता में चालू होने के बावजूद अभी भी मेट्रो परिसेवा पुरे कलकत्ता में कारगर नहीं हो पायी। कछुए की चाल से सालों साल चल रहा है। रेलवे बजट में कलकत्ता मेट्रो प्रकल्पों को शायद सही अहमियत नहीं दी जाती है अगर दी जाती तो इन ४०( 40) सालों में पूरा शहर मेट्रो परिसेवा के तहत एक नए आवाम तक पहुँच जाता। एक बहुत ही अहम और गंभीर प्रश्न खड़ा हो रहा है की बंगाल की आवाम ने अपने जनादेश में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ,वाम मोर्चा, तृणमूल कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी सभी राजनितिक दलों को समय के अनुसार अपना भरपूर समर्थन दिया लेकिन संसद में पश्चिम बंगाल का इतना भारी सांसदों का प्रतिनिधित्व होने के बावजूद पश्चिम बंगाल क्यों कारगर रूप से केंद्रीय प्रकल्पों के रूपायन में असफल रहा ? क्या बंगाल से चुने हुए ४२ (42) सांसद वह चाहे जिस किसी राजनितिक दल से हों अपनी राजनीतिक जवाबदेही और जिम्मेदारी से पलड़ा झाड़ सकते हैं ??
२०२४ (2024) लोकसभा चुनाव के लिए व्यावहारिक राजनीतिक एजेंडा होना चाहिए
प्रजातंत्र में राजनितिक दल या राजनितिक कार्यकर्ता क्या सोच रहें हैं यह कुछ खास अहमियत नहीं रखता, अगर कुछ अहमियत रखता है तो वह है आम इंसान की धारणा और सोच। हमारे देश के संविधान ने आम इंसान को सर्वोपरि रखा है और यही बसों और ट्रेनों में धक्के खाने वाला आम इंसान खास को आम और आम को खास बना सकता है। ज्यादातर राजनितिक दल एक दूसरे पर कीचड़ उछालने, महत्वहीन मुद्दों को महत्व देने और शब्दों के मायाजाल में उलझाने में व्यस्त हैं। हमारा देश ३.९३७ (3.937) ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी के साथ दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद दुनिया के सबसे अधिक अरबपतियों की संख्या और अत्यधिक आय असमानता वाला देश है। आर्थिक विकास को मानव संसाधन विकास को बढ़ाने के साधन के रूप में काम करना चाहिए, आखिरकार, आर्थिक विकास अंत का एक साधन है और मानव संसाधन विकास में सुधार हासिल करना महत्वपूर्ण है। तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था लेकिन यह रोजगारविहीन आर्थिक वृद्धि आखिरकार आम जन मानस को फायदा पहुंचाने में सक्षम नहीं होती है। इस निर्वाचन में सबसे बड़ा मुद्दा है बेरोजगारी थोड़ा और सूक्ष्मता से कहें तो शिक्षित बेरोजगारों की हद से ज्यादा बढ़ती हुयी संख्या। अर्थशास्त्रियों के अनुसार यह बेरोज़गारी एक टीकिंग टाइम बम है और अगर बेरोजगारी के मुद्दे को वस्तुनिष्ठ और समयबद्ध तरीके से संबोधित नहीं किया गया तो आने वाले कल में यह देश की कुल अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित करेगी। दूसरा अहम मुद्दा है किफ़ायती गुणवत्ता वाली शिक्षा। “सर्व शिक्षा अभियान” तभी कारगर हो पायेगा जब सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराई जायें। तीसरा मुद्दा है किफायती और गुणवत्ता पूर्ण स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं। हर साल प्राइवेट हस्पतालों और नर्सिंग होम में चिकित्सा कराने में मजबूरी (क्योंकि यह सर्वजनविधित तथ्य है कि सरकारी स्वास्थ्य परिसेवायें कैसे काम करती हैं ?) के चलते लाखों परिवार गरीबी रेखा के निचे चले जाते हैं। पश्चिम बंगाल में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSME) का राज्य की औद्योगिक इकाइयों में ९० % (90%) से अधिक, इसके औद्योगिक उत्पादन में ५०% (50%) और इसके निर्यात में ४०% (40%) योगदान है। ९० (90) लाख से अधिक उद्यमियों और एक करोड़ तीस लाख कर्मचारियों के साथ पश्चिम बंगाल सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSME) की संख्या के मामले में भारत में दूसरे स्थान पर है। पश्चिम बंगाल में लघु और मध्यम उद्यमों (MSME) इकाइयों को प्रमोशन के लिए सीमित कनेक्शन, व्यवसाय वृद्धि के लिए सीमित संसाधन, किफायती कार्यशील पूंजी और उपकरणों का अभाव, विश्वसनीय, सस्ती और आसानी से सुलभ जानकारी का अभाव, डिजिटलीकरण के लिए महँगी तकनीक जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है , अगर इन पहलुओं को सही दिशा में संबोधित किया जाये तो यह इकाइयाँ न केवल राज्य की आर्थिक वृद्धि में योगदान देंगी बल्कि ग्रामीण और शहरी इलाकों में रोजगार सृजन में भी काफी मदद करेंगी।
राज्य की वित्तीय स्थिति
ऋण-से-जीएसडीपी ( Debt-To-GSDP ratio) अनुपात राज्य के ऋण बोझ और समग्र आर्थिक कल्याण को प्रबंधित करने की क्षमता का आकलन करने में एक मौलिक आर्थिक मेट्रिक( metric) है। ऋण-से-जीएसडीपी (( Debt-To-GSDP ratio) अनुपात क्रेडिट रेटिंग, बजटीय निर्णयों और राजकोषीय निर्णयों को प्रभावित करता है। इस अनुपात की प्रभावी ढंग से निगरानी और प्रबंधन करके, राज्य दीर्घकालिक वित्तीय स्थिरता बनाए रख सकते हैं, जिम्मेदार राजकोषीय प्रबंधन सुनिश्चित कर सकते हैं और सूचित आर्थिक नीति विकल्प चुन सकते हैं। ऋण-से-जीएसडीपी ( Debt-To-GSDP ratio) अनुपात की गणना कुल बकाया ऋण को उसके जीएसडीपी से विभाजित करके और इसे प्रतिशत के रूप में व्यक्त करने के लिए १०० (100) से गुणा करके की जाती है। पश्चिम बंगाल राज्य की ऋण-से-जीएसडीपी अनुपात २०२३- २०२४ के वित्तीय वर्ष में ३७.१ % ( 37.1%) है। मतलब कुल राज्य के १७.१९ (17.19 ) लाख करोड़ जीएसडीपी के हिस्से का ३७.१ % (37.1%) ऋण चुकाने में जाता है। राज्य में प्रति व्यक्ति आय ( per capita income) 1,41,373 ₹ है। प्रति व्यक्ति आय एक विशिष्ट वर्ष में प्रति व्यक्ति अर्जित औसत आय है। १९६१ (1961) में बड़े राज्यों में पश्चिम बंगाल की प्रति व्यक्ति आय सबसे अधिक थी। उस समय यह भारत का सबसे अमीर राज्य था; महाराष्ट्र से भी ज्यादा अमीर। अब प्रति व्यक्ति आय में पश्चिम बंगाल सिक्किम, गोवा, दिल्ली, चंडीगढ़, तेलंगाना, कर्नाटक, हरियाणा, तमिलनाडु, गुजरात , केरल, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, आँध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, अरुणाचल प्रदेश, मिजोराम, पंजाब, त्रिपुरा, राजस्थान, ओड़िशा जैसे राज्यों से पीछे चल रहा है। इस आश्चर्यजनक प्रति व्यक्ति आय की गिरावट पर हमारे राज्य के राजनीतिज्ञों को सोचने की बहुत जरुरत है कि गिरावट क्यों और कैसे हुई ?
निष्कर्ष : यह चुनाव लोक सभा चुनाव है ( Lower House of Parliament) मतलब सीधे भाषा में कहें तो आम नागरिक अपने जनादेश के माध्यम से देश चलाने का बागडोर चुनिंदा राजनितिक नेतृत्व को सोपने वाले हैं। पश्चिम बंगाल का राजनीतिक आख्यान केवल प्रमुख दलों के बारे में नहीं है, बल्कि इसमें क्षेत्रीय दलों और गठबंधनों की एक विविध श्रृंखला भी शामिल है। राजनितिक पार्टियाँ ज़ोर-शोर से प्रचार कर रही हैं और विभिन्न प्लेटफार्मों के माध्यम से मतदाताओं से जुड़ रही हैं और उम्मीदवार अपना-अपना राजनितिक दृष्टिकोण पेश करने की होड़ में लगे हुये हैं। प्रजातंत्र के महापर्व (आम चुनाव ) की इस पूरी प्रक्रिया के केंद्र बिंदु में है आम इंसान और उनसे जुड़े ज्वलंत मुद्दे आर्थिक विकास से लेकर सामाजिक कल्याण तक। देश भले ही किसी भी राजनितिक नेतृत्व द्वारा परिचालित हो लेकिन इस परिचालना की आधार शिला करोड़ों आम इंसान की खून पसीने से सींची जाती है और इन जनप्रतिनिधियों को भी आम इंसान से जुड़े बुनियादी मुद्दों को गंभीरता से लेना होगा। आजादी के ७५ (75) सालों के बाद भी बुनियादी मुद्दों बेरोजगारी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रणाली, किफायती गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य परिसेवायें, भुखमरी, कुपोषण, जवाबदेह सार्वजनिक सेवाएँ के लिए आम इंसान अभी भी जद्दोजहद कर रहा है। और दुःख की बात यह है की कितनी सरकारें आयीं और गयी पर इन आम इंसान से जुड़ी इन बुनियादी मुद्दों को किसी भी राजनितिक दल ने सही दिशा में संबोधित नहीं किया है। हमारे देश में नीति निर्माताओं और जमीनी स्तर पर नीति कार्यान्वयनकर्ताओं की सोच के बीच एक बड़ा अंतर है, और यही कारण है कि बहुत सारी लाभार्थी योजनाएं बनाई जाती हैं दुर्भाग्य से, वे अधिकतर कागज़ पर ही रह जाते हैं। निर्वाचित जन प्रतिनिधियों और नौकरशाहों को इन मुद्दों को उद्देश्यपूर्ण, यथार्थवादी, समयबद्ध और परिणामोन्मुख तरीके से संबोधित करने की आवश्यकता है। लोकसभा चुनावों के नतीजे न केवल पश्चिम बंगाल राज्य का तात्कालिक राजनीतिक भविष्य तय करेंगे बल्कि राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा। चुनावी नतीजे चाहे जो हों लेकिन जो जनप्रतिनिधि बंगाल से चुन कर जायेंगे उनको राज्य की उन्नति की दिशा में परिणामोन्मुख तरीके से सही मुद्दों को संबोधित करने की आवश्यकता है और तभी पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव वास्तव में लोकतांत्रिक मूल्यों और लोगों की आकांक्षाओं पर खरा उतरेगा।
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