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बंगाल राजनीति का बदलता चेहरा, क्या विचारधारा से प्रेरित राजनीति की जगह बाहुबल की राजनीति हावी हो रही है?

नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़, कलकत्ता : “सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता बिल्कुल भ्रष्ट करती है” (“Power corrupts and absolute power corrupts absolutely.”) सदियों से, लॉर्ड जॉन एमरिच एडवर्ड डालबर्ग-एक्टन ( Lord John Emerich Edward Dalberg-Acton)  द्वारा कही गई इस प्रसिद्ध कहावत का इतिहासकारों और दार्शनिकों द्वारा कई बार विश्लेषण और विच्छेदन किया गया है। कुछ दार्शनिकों का मानना है कि सत्ता भ्रष्ट नहीं करती, वह केवल भ्रष्ट लोगों को आकर्षित करती है।  जैसे-जैसे किसी भी व्यक्ति का राजनितिक कद और साथ -साथ  सामाजिक स्वीकृति  बढ़ती है शायद नैतिक मूल्य बोध कम होती जाती है। यह विचार पूरे इतिहास में विभिन्न विचारकों द्वारा व्यक्त किया गया है।  यह अवधारणा हमारे राज्य और देश की  राजनीति के संदर्भ में भी काफी हद तक प्रासंगिक है। राज्य और देश की राजनीति के संदर्भ में, इस अवधारणा को विभिन्न उदाहरणों में देखा जा सकता है जहां अनियंत्रित पदाधिकारी  पदों पर बैठे व्यक्ति या दल ऐसे कार्यों में संलग्न हो सकते हैं जो सार्वजनिक कल्याण पर व्यक्तिगत या राजनीतिक लाभ को प्राथमिकता देते हैं।

                              राजनीतिक बाहुबल का अनैतिक प्रयोग के पीछे का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

नेताओं का भ्रष्टाचार और बाहुबल का प्रयोग राज्य और देश की राजनीति में कोई नई बात नहीं है।  बंगाल के राजनितिक इतिहास के पन्ने साक्षी हैं  की राजनितिक बाहुबल का प्रयोग साठ दशक  के शुरुआती दौर से शुरू हुआ और हर राजनितिक दल ने अपने शासन काल में राजनीतिक प्रभुत्व बनाए रखने, दुर्लभ राज्य संसाधनों पर कब्ज़ा करने और लोकतांत्रिक स्थान पर एकाधिकार करने के लिए इसका भरपूर प्रयोग किया है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सत्ता अपने आप में प्रभुत्व का एहसास देती है और पूर्ण राजनीतिक वर्जस्व ( absolute political  power)  व्यक्ति की मानसिकता और मनोदशा को बिना वास्तविकता से ठीक से जुड़े और संसाधित हुए तार्किक ( logically) रूप से सोचने की शक्ति को धुंधला कर देती है। ये व्यक्ति अपनी सीमाओं के बारे में अपनी तर्कसंगतता खो देते हैं और खुद को यह सोचकर भ्रमित कर लेते हैं कि उन्हें अन्य सभी से ऊपर शासन करने का अधिकार है। परिणामस्वरूप यह वास्तविकता से दूर और अहंकार में डूबे  अपनी शक्ति का प्रयोग करने के तरीके के रूप में नृशंस कृत्य करना शुरू करते हैं। इसे कई मनोवैज्ञानिक, शक्ति का विरोधाभास कहते हैं। वे गुण जो एक राजनैतिक नेता को सबसे पहले सारा नियंत्रण जमा करने में मदद करते हैं , सत्ता में आने पर गायब हो जाते हैं। कुछ मनोविज्ञानियों का मानना है कि पूर्ण राजनितिक वर्जस्व (absolute political  power) व्यक्तित्व और  सोचने समझने की प्रक्रिया पर गहरा प्रभाव विस्तार करता है। जैसे ही एक नेता सत्ता के साथ सीढ़ियाँ चढ़ने लगता हैं, तो उसके आंतरिक तर्क अस्पष्ट  होने लगते हैं और जिसका स्वाभाविक प्रभाव उसके पुरे व्यक्तित्व पर हावी होने लगता है।

किसी भी लोकतंत्र में, संप्रभुता लोगों में निहित मानी जाती है, और निर्वाचित प्रतिनिधियों की संसद लोगों की संप्रभुता का प्रतिनिधित्व करती है। हालाँकि, बहुमत शासन लोकतंत्र के केंद्र में है, इसलिए बहुसंख्यक विरोधी सुरक्षा उपाय महत्वपूर्ण हो जाते हैं। भारतीय संविधान ऐसे सुरक्षा उपायों के लिए सर्वोच्च सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करता है। “केशवानंद भारती” के ऐतिहासिक मामले के माध्यम से स्थापित “बुनियादी संरचना सिद्धांत” संवैधानिक तानाशाही को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस सिद्धांत के अनुसार, संसद के विशेष बहुमत से पारित कोई संवैधानिक संशोधन भी असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है यदि वह संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करता हो (There are certain principles within the framework of Indian Constitution which form its ‘basic structure’. These principles are inviolable and, hence, cannot be amended by Parliament )। वरिष्ठ न्यायालयों को यह तय करने का अधिकार है कि मूल संरचना क्या है, जिससे वे अंतिम मध्यस्थ बन जाते हैं। अनिर्वाचित न्यायाधीशों द्वारा प्रशासित होने के बावजूद, यह प्रतीत होता है कि अलोकतांत्रिक उपकरण स्थायी लोकतंत्र के लिए एक शक्तिशाली सुरक्षा उपाय बन गया है। निरंकुश सत्ता न केवल भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है बल्कि बुरे निर्णयों का भी परिणाम होती है। राजनितिक तौर पर सर्व-शक्तिशाली व्यक्ति यह मानने लगते हैं कि वे सबसे बेहतर जानते हैं और सुनना या आम सहमति बनाना बंद कर देते हैं। हमारे देश के राजनितिक इतिहास (केंद्र और राज्यों )में भी इस तरह के कई उदाहरण मिल जायेंगे जो यह प्रमाण करते हैं की सत्ता का नशा सर चढ़ कर बोलता है और आम इंसान की प्राथमिकता को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया गया है।

उपसंहार : राजनीतिक भ्रष्टाचार एवं बाहुबल का प्रयोग एक जटिल सामाजिक-आर्थिक बहुआयामी समस्या है जिसने कमोबेश दुनिया के सभी देशों को प्रभावित किया है। यह न केवल लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करता है, बल्कि आर्थिक विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है साथ-साथ कानून के शासन को भी कमजोर करता है। अनुभवजन्य ( empirical) साक्ष्य यह दिखाते हैं कि राजनीतिक भ्रष्टाचार एवं बाहुबल का जाल कई क्षेत्रों पर बहुत गहरा प्रभाव डालता है। निवेश में बाधा डालता है, विकास को कम करता है, व्यापार को प्रतिबंधित करता है, सरकारी व्यय के आकार और संरचना को विकृत करता है, वित्तीय प्रणाली को कमजोर करता है और कालाबाजारी अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करता है। राजनीतिक भ्रष्टाचार एवं बाहुबल  की कड़ी सीधे तौर पर गरीबी, आय असमानता, धन का असमान वितरण से जुड़ी हुई है।  विश्व आर्थिक मंच ( World Economic Forum ) के  अनुमान के अनुसार भ्रष्टाचार के कारण सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 5% ( 2.6) ट्रिलियन डॉलर खर्च होता है । यह राजनितिक भ्रष्टाचार कोई नयी घटना नहीं है अगर इतिहास के पन्नों को उलटें तो पायेंगे की प्लूटो ( Pluto ), एरिस्टोटल ( Aristotle ), कौटिल्य जैसे राजनीतिक दार्शनिकों ने भी इस अनैतिक राजनितिक व्यवहार को समाज में नैतिक पतन का संकेत बताया है।

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Nanda Dulal Bhatttacharyya

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पेशे से पत्रकार, निष्पक्ष, सच्ची और ज़मीन से जुड़ी रिपोर्टिंग का जुनून

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