नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़, कलकत्ता : हमने हाल ही में देश की आजादी का ७५ (75)वें वर्ष का जश्न समाप्त किया है। लेकिन कहीं-न-कहीं हमें अपनी राजनीतिक प्रक्रिया के तौर-तरीकों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। इस ७५ ( 75) साल की राजनीतिक कार्यकलाप ने पुरे देश में सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को पूरी तरह हावी होने दिया है। हालांकि पिछले ७५ (75) वर्षों में बहुत कुछ हासिल किया गया है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ हासिल किया जाना बाकी है। १९४७ (1947) में भारतीयों का औसत आयु ३२ (32) वर्ष था यह २०२२ ( 2022) में ७० (70) साल तक बढ़ गया है । हमने दशकों से कई क्षेत्रों में समान द्वंद्व देखा है, चाहे वह सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय या राजनीतिक हो। जब हम आर्थिक परिदृश्य पर विचार करते हैं तो एक समान द्वंद्व होता है। एक ओर हम आकार के साथ-साथ सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की विकास दर के आधार पर शीर्ष पांच अर्थव्यवस्थाओं में से एक हैं, और दूसरी ओर हमारे पास गरीब लोगों की संख्या सबसे अधिक है और आय और धन असमानता के उच्चतम स्तर में से एक हैं। राजनीतिक दृष्टि से हम दुनिया के सबसे बड़े चुनावी लोकतंत्र हैं, उपलब्ध आकड़ों के अनुसार २०२४(2024) में लगभग ९४ (94) करोड़ से अधिक लोग मतदान प्रक्रिया में हिस्सा लेंगें फिर भी हम लोकसभा से लेकर स्थानीय स्वशासन (ग्राम पंचायत, जिला परिषद, म्यूनिसिपैलिटी ) तक हमारी राजनीतिक मानसिकता में भयानक गिरावट के मूक गवाह बने हुए हैं। विकास और उपेक्षा के दो चरणों के बीच विसंगति का पैटर्न स्पष्ट है। दशकों के नारे “गरीबी हटाओ” और “सबका साथ सबका विकास” के बावजूद सर्वांगीण प्रगति और कल्याण हासिल करने में असमर्थता का क्या कारण है ? यह संयोग की बात नहीं हो सकती है यह तस्वीर बिल्कुल स्पष्ट रूप से उभर कर आ रही है की सत्ताधारियों की नीतियाँ आबादी के विशाल हिस्से को सही दिशा और दशा देने में बहुत हद तक नाकामयाब रहीं हैं । स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाले ज्यादातर आत्म-बलिदान करने वाले आदर्शवादी लोग थे, लेकिन आजादी के बाद उनकी जगह ऐसे लोगों ने ले ली जो बड़े पैमाने पर स्वार्थी और भौतिकवादी (materialistic )थे। स्वतंत्रता के बाद के राजनीतिक वर्ग के बीच प्रचलित नैतिकता “मेरे और मेरे परिवार के लिए अधिकतम लाभ” और कुछ मामलों में मेरे विस्तारित परिवार के लिए है। हम अपनी राजनीतिक व्यवस्था के डिज़ाइन में दोष के परिणामस्वरूप स्वयं को इस स्थिति में पाते हैं। हमने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार वाले चुनावी संसदीय लोकतंत्र को चुना, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि राजनीतिक समानता सामाजिक और आर्थिक समानता लाने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण बन जाए। लेकिन व्यवहार में, सामाजिक और आर्थिक असमानताओं ने राजनीतिक प्रक्रिया पर कब्ज़ा कर लिया है और विभिन्न रणनीतियों के माध्यम से, सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को एक सांकेतिक अभ्यास में बदल दिया है जो पिछली सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को जारी रखने के लिए अनुमोदन की मोहर प्रदान करता है। जन-प्रेरित नेतृत्व (people-inspired leadership)की अनुपस्थिति में, लोकतंत्र को जन सांख्यिकीय लोकतंत्र तक सीमित कर दिया गया है और राष्ट्र-निर्माण की जगह बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचारतंत्र में बदल दिया गया है। अगर हम देश और राज्यों की राजनीतिक व्यवस्था की स्थिति को थोड़ा निष्पक्ष एवं सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो राजनीति ,समाज सुधार, आम इंसान तक प्रजातंत्र के फायदों को पहुंचाने के नियमों को ही पूरी तरह से बदल दिया गया है। यह स्वार्थी और राजनीति की अदूरदर्शी कार्यप्रणाली आम इंसान के जीवन के हर पहलू पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। राजनीतिक दल लोकतंत्र की आधारशिला हैं, फिर भी विरोधाभासी रूप से अधिकांश राजनीतिक दल न तो मूल रूप से लोकतांत्रिक हैं और न ही लोगों के प्रति जवाबदेह हैं। पिछले कुछ वर्षों में, चुनाव आयोग ने कई प्रकटीकरण (disclosure) आवश्यकताओं को जोड़ा है, लेकिन इनका सिर्फ कागजी रूप में ही अनुपालन किया जा रहा है। चुनाव प्रणालियों में सुधार करना पर्याप्त नहीं है, हमें निर्वाचित प्रतिनिधियों की जवाबदेही में उल्लेखनीय वृद्धि करने की आवश्यकता है। लेकिन प्रश्न यह है की यह बदलाव कौन लाएगा? हम राजनीतिक दलों से अपनी बुरी प्रथाओं को सुधारने की उम्मीद नहीं कर सकते। न ही हम संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था से इन प्रणालीगत परिवर्तनों की अपेक्षा कर सकते हैं। सही दिशा में परिवर्तन तो “हम भारत के नागरिकों ” को ही लाना होगा।
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