नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़, राँची : हर साल सरकार नये बजट लाती है और इस वित्त वर्ष २०२३-२०२४ (2023-24) का बजट वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में पेश किया। देश के राष्ट्रीय और आंचलिक हर न्यूज़ चैनल पर सूट टाई पहने हुए एंकर सब रंग के राजनेता, अर्थशास्त्री और तथाकथित बुद्धिजीवी अपने विचार और बहस रखते हुये fiscal deficit (राजकोषीय घाटा), gross domestic product (सकल घरेलू उत्पाद), interest rates (ब्याज दर) inflation ( मुद्रास्फ़ीति ) economic growth (आर्थिक विकास) income tax rates (आयकर की दरें) अर्थशास्त्र संबंधी कठिन शब्दों का इस्तेमाल कर अपनी महँगी गाड़ियों और z- category security के साथ निकल जाते हैं। हमें तो साहब बाजार का थैला लेकर बाजार पहुंचने पर, बच्चों की ट्यूशन फीस, गैस और बिजली का बिल ,वृद्ध माता पिता की दवाइयाँ खरीदते वक़्त बजट तो नहीं पर महंगाई की मार जरूर समझ में आती है। प्राइवेट नौकरी है साहब वक़्त पर पहुँचना पड़ता है बस के किराये में भी काफी इजाफा हुआ है तो दो तीन स्टॉपेज पहले उतर कर किराया बचाने की कोशिश करते हैं। और घर में कभी कोई ज्यादा बीमार पर जाये तो साहब पूछिए मत बड़ी आफ़त आ जाती है डॉक्टर की फीस, दवाइयाँ कुल मिलाकर एक बड़े तूफान का सामना करना पड़ता है। पिछले साल बाबूजी का मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाये थे सरकारी हस्पताल में बहुत दिनों तक धक्का खाने और घूमने के बाद बड़ी मुश्किल से बाबूजी को बेड मिला था। हम तो ठहरे आम इंसान सरकारी हस्पताल में ही इलाज करवा पाते हैं प्राइवेट हस्पताल तो हमारी औकात से बाहर है वह तो पैसे वालों के लिए है। घर की थोड़ी मरम्मत करवानी है पर हौसला नहीं जुटा पा रहें हैं गृह मरम्मत सामग्री की कीमत सुनकर हाथ पाँव फूलने लगते हैं पता नहीं इस साल बरसात में छत से पानी टपकने न लगे। छोटी बहन ने स्नातक की पढ़ाई पूरी करके नौकरी की तलाश में पिछले तीन सालों से घूम रही है। थोड़े बहुत ट्यूशन पड़ा लेती है अब उसकी भी शादी करवानी है। दफ्तर में बड़े बाबू को लोन की अर्जी डाली है पर थोड़ी घबराहट भी है घरेलू खर्च में लगातार हो रही वृद्धि उसके ऊपर लोन चुकाने का बोझ अब तो बस भगवान ही मालिक है। हज़ूर हम तो आम इंसान हैं पिछले ७०(70) सालों से अपनी न्यूनतम बुनियादी जरूरतों के लिये जद्दोजहद कर रहें हैं बस हर साल बजट आने पर इस आस में रहते हैं की शायद कभी आम इंसान की बुनियादी जरूरतों को धयान में रखकर बजट बन जाये । साहब यह मैं कोई कहानी नहीं सुना रहा हूँ यह हम आम इंसान की रोजमर्रा जिंदगी का कड़वा सच है।
निष्कर्ष : सरकारें बजट बनाती हैं और शायद आम इंसान की जीवन मान की उन्नति के लिये बहुत सारे लाभार्थी योजनाएँ भी, लेकिन इन लाभार्थी नीतियों और उनके कार्यान्वयन के बीच बहुत बड़ा अंतर रह जाता है। सरकारी स्वास्थ्य परिशेवायें और सरकारी स्कूलों में गुणात्मक परिवर्तन की बहुत आवश्यकता है, वरना अधिकांश लोग जो प्राइवेट अस्पतालों और स्कूलों का खर्च नहीं उठा सकते, पूरी तरह से वंचित हो जाएंगे और इस जीवन मान की दौड़ में एक बड़ा तबका बहुत पीछे छूट जायेगा। बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण जैसे मूलभूत समस्यायों पर एक समयबद्ध और परिणामोन्मुख उद्देश्य आरंभ करने की बहुत ही आवश्यकता है। जमीनी स्थिति का आकलन करने और उसके अनुसार सुधारात्मक कदम उठाने के लिए नीति निर्माताओं द्वारा लगातार समय-समय पर फीड बैक लेना बहुत ही आवश्यक है नहीं तो यह पूरी पहल सही परिणाम देने में व्यर्थ हो जाएगी और यही कारण भी है कि इतने सरकारी खर्च के बावजूद वास्तव में स्थितियां नहीं बदल रही हैं।
बिधिवत सतर्कीकरण एवं डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : हमने आम नागरिकों से बजट पर बातचीत कर उनकी दी हुई प्रतिक्रियाओं के आधार पर एक कहानी के शक्ल में उनके जज्बातों को ब्यान करने की कोशिश की है। इस समाचार में दिया गया वक़्तवय और टिप्पणी एक निरपेक्ष न्यूज़ पोर्टल की हैसियत से उपलब्ध तथ्यों और समीक्षा के आधार पर दिया गया है। हमारा उदेश्य किसी राजनितिक दल या व्यक्ति विशेष की समालोचना करना नहीं हैं। और ना ही किसी व्यक्ति या समूह पर अपने विचार थोपना। (हकीक़त न्यूज़ www.haqiquatnews.com) अपने सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति पूरी तरह से जागरूक न्यूज़ पोर्टल है।
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