नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हकीकत न्यूज़, सागरद्वीप, पश्चिम बंगाल : हमारा देश धार्मिक मान्यताओं से लेकर प्रमुख वास्तुशिल्प चमत्कारों का एक सुन्दर मिश्रण है। इन धार्मिक मान्यताओं के साथ साथ विभिन्न त्योहारों से भरा हुआ है और किसी मनोरम उत्सव से कम नहीं है। राम कृष्ण परमहंस देव , स्वामी विवेकानंद, जैसे संतों की एक पूरी श्रृंखला ने मान्यताओं और आध्यात्मिकता के पाठ और प्रेरणा से पूरी दुनिया को परिचित कराया। हमारे देश में एक ऐसा प्रमुख मेला और त्यौहार, जो लोकप्रियता के मामले में कुंभ मेले के बाद दूसरा स्थान है, बंगाल के सागरद्वीप में हर साल आयोजित होता है और गंगा सागर मेला के नाम से विख्यात है। गंगा सागर मेला पश्चिम बंगाल में आयोजित होने वाले सबसे बड़े मेलों में से एक है। इस मेले का आयोजन कोलकाता के सागरद्वीप पर ठीक उस स्थान पर किया जाता है, जहाँ पर गंगा नदी बंगाल की खाड़ी में मिलती है। इसीलिए इस मेले का नाम गंगा सागर मेला है। यह मेला विक्रमी संवत के अनुसार प्रतिवर्ष पौष मास में मकर संक्रान्ति के दिन लगता है। गंगा सागर मेला का आध्यात्मिक महत्व है इसीलिए बहुत भारी संख्या में भक्त पुरे भारत से इस मेले में स्नान करने हेतु आते हैं। गंगा सागर मेला हर साल १४ (14) जनवरी से १५ (15) जनवरी के बीच मकर संक्रांति में पड़ता है। ऐसी मान्यता है कि इस दौरान पवित्र गंगा के जल में डुबकी लगाने से सब पाप धूल जाते हैं और व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
गंगा सागर मेला का इतिहास
गंगा सागर में प्रसिद्ध संत कपिल मुनि का मंदिर है और कलकत्ता से लगभग १३० (130) किलोमीटर दूर सागर द्वीप पर अवस्थित है। इस मंदिर और मेले पीछे का इतिहास यह है की पुराणों के अनुसार कहते हैं कि राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ा और उसकी रक्षा का भार ६० (60) हज़ार पुत्रों को दिया। स्वर्ग के देवता, राजा इंद्र ने वह घोड़ा चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बाँध दिया। घोड़े को खोजते हुए जब राजकुमार वहाँ पर पहुँचे तो मुनि को भला–बुरा कहने लगे। मुनि को इस उदण्डता पर बहुत ही क्रोध आ गया और सभी ६० (60) हज़ार सगर पुत्र मुनि की क्रोधाग्नि में जलकर भस्म हो गए, तब सगर के पुत्र अंशुमान ने मुनि से क्षमा–याचना की और राजकुमारों की मुक्ति का उपाय पूछा। मुनि ने कहा-स्वर्ग से गंगा को पृथ्वी पर लाओ, गंगा की जलधारा के स्पर्श से ये मुक्त हो पायेंगे। अंशुमान ने तप किया, किन्तु सफल नहीं हुए। फिर राजा सगर के पोते भागीरथ ने तप करके गंगा नदी को पृथ्वी पर उतारा। भागीरथ के रथ के पीछे–पीछे गंगाजी अविरल प्रवाह के साथ यहीं गंगा सागर कपिल आश्रम में आयीं और उनके पितरों की राख को स्पर्श किया, जिससे सभी राजकुमार मोक्ष को प्राप्त हुए। वह दिन मकर संक्रान्ति का दिन था। तभी से मकर संक्रान्ति के दिन यहाँ पर प्रतिवर्ष स्नान–दान, पूजा व मेले की परम्पराओं का शुभारम्भ हुआ।
मान्यताओं के अनुसार ऐसा कहा जाता है की मकर संक्रांति के दिन गंगा सागर में स्नान और दान का जो महत्व है वह कहीं अन्यत्र नहीं है। इसलिए कहा जाता है “सारे तीर्थ बार-बार गंगा सागर एक बार”। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी तीर्थों में कई बार यात्रा का जो पुण्य प्राप्त होता है वह मात्र एक बार गंगा सागर में स्नान और दान करने से प्राप्त हो जाता है।मान्यता यह भी है की जो पुण्य श्रद्धालु को सभी तीर्थ करने से मिलता है उससे कहीं अधिक गंगा सागर की तीर्थ यात्रा एकबार करने से मिल जाता है.।
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