नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़, मुजफ्फरपुर : बिहार की गायिका नेहा सिंह राठौर ने “बिहार में का बा सीजन टू ” गीत गाया है ” जनता के मुद्दा से ना केहू परेशान बा…कुर्सी रहे सुरक्षित एही पे ध्यान बा ‘चाचा- भतीजा राजी.भाड़ में जाए फूफा जी” इस गीत ने कहीं न कहीं बहुत ही सरलता से राजनीती और राजनेताओं का आम इंसान के मुद्दों को छोड़ किसी भी हाल में सिर्फ सत्ता पर बने रहने का प्रयास बयान किया है । चलिए थोड़ा जानने की कोशिश करते हैं की आजादी पाने के बाद से अब तक बिहार में शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वास्थ्य परिशेवायें, बेरोजगारी, कुपोषण, भुखमरी जैसी आम इंसान से जुड़ी बुनियादी मुद्दों पर कितना काम हुआ है और उनका स्तर क्या है। अगर हम शिक्षा को देखें तो बिहार ऐतिहासिक रूप से शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र रहा है,नालंदा, ओदंतपुरा और विक्रमशिला जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों का घर रहा है। लेकिन इस परंपरा को शायद अब तक की सरकारों ने सही दिशा और दशा नहीं दी है। २०११ (2011) के जनगणना के आंकड़ों के अनुसार बिहार की कुल साक्षरता दर ६१.३५ % (61.35%) है। राज्य की पुरुष साक्षरता दर ६०.३२% ( 60.32%) है और महिलाओं की साक्षरता दर ३३.५७ % (33.57%) है। राज्य की साक्षरता दर समग्र राष्ट्रीय औसत ७४.०४ % (74.04%) से कम है। आकड़ों से ज्यादा महत्वपूर्ण है प्राथमिक और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता। सरकारी शिक्षा के छेत्र में इसी गुणवत्ता पर बहुत सारे प्रश्नचिन्न खड़े हो रहें हैं।बिहार में अपर्याप्त शैक्षिक बुनियादी ढांचा है जो मांग और आपूर्ति के बीच एक बड़ा बेमेल पैदा कर रहा है। सबसे ज्यादा बेमेल उच्च शिक्षा के छेत्र में है और इसके चलते राज्य से बड़े पैमाने में छात्र बाहर के राज्यों में जाने को मजबूर हो रहें हैं। दूसरा बहुत ही अहम मुद्दा राज्य के स्वास्थ्य और स्वास्थ्य सुविधावों से जुड़ा है। बिहार विधायिका के सामने रखे गए नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य के स्वास्थ्य क्षेत्र की स्थिति अनुकूल से बहुत दूर है, जिसमें कर्मचारियों और अस्पताल की सुविधाओं की भारी कमी है। सरकार के लेखा परीक्षक द्वारा प्रदर्शन और अनुपालन रिपोर्ट में २०१४-१५ (2014-15) से २०१९- २० (2019-20) की अवधि के लिए पांच जिलों- पटना, बिहारशरीफ, हाजीपुर, जहानाबाद और मधेपुरा खंडों के स्वास्थ्य ढांचे को ध्यान में रखा गया है। जिला अस्पतालों में भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानकों (आईपीएचएस) के अनुसार बिस्तरों की ५२ (52) से ९२ (92) प्रतिशत की कमी पाई गयी है। रिपोर्ट में और भी उल्लेख किया गया है कि विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी, बुनियादी सुविधाओं की कमी के साथ साथ राज्य का स्वास्थ्य विभाग २००९ (2009) से अस्पताल के बिस्तरों की संख्या बढ़ाने में विफल रहा है,। राज्य ने २०१४ (2014) से २०२० (2020) तक एमबीबीएस डॉक्टरों, नर्सों, पैरामेडिकल स्टाफ, लैब तकनीशियनों की नियुक्ति में लगातार अंतराल देखा गया है। इसके अतिरिक्त, जिला अस्पतालों में कार्डियोलॉजी, गैस्ट्रो- एंटरोलॉजी, नेफ्रोलॉजी और ईएनटी जैसे १२ (12) से १५ (15) आवश्यक विभागों में प्राथमिक चिकित्सा परीक्षण सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं । विशेषज्ञ डॉक्टरों की लगातार कमी के अलावा, बुनियादी ढांचे जैसे भवन, चिकित्सा उपकरणों की भारी कमी भी नज़र आ रही है । तीसरा अहम मुद्दा राज्य में बेरोजगारी का है बिहार में वर्तमान बेरोजगारी दर लगभग १८.८ % (18.8%) है। बेरोजगारी एक अभिशाप की तरह है। बेरोजगारी के कारण तो बहुत हैं पर मूलतः आधारभूत ढाँचे का अभाव, आधारभूत ढाँचे का समुचित विकास नहीं हो पाना, रोजगारमुखी शिक्षा का अभाव अक्सर यह देखा जाता है कि युवा पढ़ाई तो करते हैं लेकिन वो रोजगारोन्मुख नहीं हो पाते । इससे युवा पीढ़ी शिक्षित तो होती है लेकिन वो आवश्यक रोज़गार के लिए प्रशिक्षित और दक्ष नहीं हो पाते। राज्य में ऐसे बेरोजगारों की संख्या सबसे ज्यादा है जो शिक्षित तो है लेकिन प्रशिक्षित नहीं। राज्य सरकार ने शिक्षित बेरोजगार युवाओं के लिए बेरोजगारी भत्ता जैसे अल्पकालिक कदम तो उठाये हैं पर आज के दौर में दीर्घकालिक रोजगार सृजन में राज्य सरकारों को भी पहल करनी होगी। राज्यों के पास भी बहुत सारे संसाधन हैं जैसे भूमि, बिजली, पानी और कई अन्य आवश्यक चीजों का आवंटन उन्हीं के हाथों में है इन चीजों का सही इस्तेमाल करके वे दीर्घकालिक रोजगार सृजन योजनाओं को अंजाम दे सकते हैं। नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण रोजगार उपलब्ध कराना राज्य सरकार की भी जिम्मेदारी है। चुनावी प्रचार में ज्यादातर राजनितिक दल युवा वर्ग को आकर्षित करने के लिये बेरोजगारी मिटाने के दावे तो कर देते हैं पर औद्योगिक विस्तार और गुणवत्तापूर्ण दीर्घकालिक रोजगार सृजन को प्राथमिकता देना भूल जाते हैं ।देश और राज्यों में मिलीजुली सरकारों के अभी तक के परिणाम सुखद, सफल और आशाजनक नहीं कहे जा सकते। मिलीजुली सरकारों के गठन और जीवन तथा कार्यकरण के लिए जिस कौशल और सहनशीलता की आवश्यकता होती है, भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में अभी तक वस्तुतः उसका बहुत ही अभाव रहा है। यही कारण है कि ज्यादातर गठबंधन सरकारें अपना कार्यकाल ही नहीं पूरा कर पातीं और यदि कर भी लेती हैं, तो अपने कार्यकाल में ‘सुशासन और विकास के बजाय इनका पूरा ध्यान सहयोगी दलों को साधकर सत्ता संतुलन बनाए रखने में लगा रहता है। सत्ता की अनेक परिभाषाएँ और व्याख्याएँ की गई हैं, किंतु सभी रूपों में सत्ता शक्ति, प्रभाव एवं नेतृत्त्व से जुड़ी हुई हैं जब शक्ति को वैधानिक स्वीकृति मिल जाती है तो उसे सत्ता कहते हैं। अब देखना यह है की यह नया राजनितिक समीकरण ( सत्ता) कितना आम इंसान के बुनियादी मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित करता है और बिहार राज्य की विकास में अपना कितना योगदान रखता है यह तो आने वाला वक़्त ही बतायेगा।
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