नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़, पटना : हमारे देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजादी मिले ७५ (75) साल पूरे हो चुके हैं। करीब २०० (200) साल की गुलामी की जंजीर को तोड़ने के लिए हज़ारों की तादाद में लोगों की क़ुर्बानी के बाद यह स्वतंत्रता हासिल हुई। इन ७५ (75) साल के लोकतान्त्रिक शासन काल में हमारे देश के नाम के साथ कई अहम उपलब्धियां जुड़ चुकी हैं। लेकिन क्या आम इंसान इन उपलब्धियों में सही मायनों में भागीदार बन पाया ? लोकतंत्र या प्रजातंत्र एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमे जनता का, जनता के द्वारा तथा जनता के लिए शासन है। लोकतंत्र में जनता अपनी मर्जी से विधायिका चुन सकती है। एक अच्छा लोकतंत्र वह है जिसमे राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी हो । लोकतंत्र केवल शासन के रूप तक ही सीमित नहीं है,वह समाज से जुड़ा एक सोच भी है। सामाजिक आदर्श के रूप में लोकतंत्र वह समाज है जिसमें कोई विशेषाधिकारयुक्त वर्ग नहीं होता और न जाति, धर्म, वर्ण, वंश, धन, लिंग आदि के आधार पर व्यक्ति व्यक्ति के बीच भेदभाव किया जाता है। इस प्रकार का लोकतंत्रीय समाज को लोकतंत्रीय राष्ट्र का आधार कहा जा सकता है। राजनीतिक लोकतंत्र की सफलता के लिए उसका आर्थिक लोकतंत्र से गठबंधन आवश्यक है। आर्थिक लोकतंत्र का अर्थ है कि समाज के प्रत्येक सदस्य को अपने विकास की समान भौतिक सुविधाएँ मिलें। एक ओर घोर निर्धनता तथा दूसरी ओर विपुल संपन्नता के वातावरण में लोकतंत्रात्मक राष्ट्र का निर्माण संभव नहीं है। क्षमता, सहिष्णुता, विरोधी के दृष्टिकोण के प्रति आदर की भावना, व्यक्ति की गरिमा का सिद्धांत ही वास्तव में लोकतंत्र का आधार है।लंदन स्थित द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट हर साल दुनियाभर के देशों के लिये डेमोक्रेसी इंडेक्स यानी लोकतंत्र सूचकांक जारी करता है। इस रिपोर्ट में दुनिया के देशों में लोकतंत्र की स्थिति का आकलन पाँच पैरामीटर्स पर किया जाता है- चुनाव प्रक्रिया और बहुलतावाद (Pluralism), सरकार की कार्यशैली, राजनीतिक भागीदारी, राजनीतिक संस्कृति और नागरिक आज़ादी। गौरतलब है कि ये सभी पैमाने एक-दूसरे से जुड़े हैं और इन पाँचों पैमानों के आधार पर ही किसी भी देश में मुक्त और स्वच्छ चुनाव और लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थिति का पता लगाया जाता है। २०२१ (2021) के लिये १६७ (167) देशों का यह सूचकांक जारी किया गया और इसमें भारत को ४६ (46) वें स्थान पर रखा गया है और भारत को दोषपूर्ण लोकतांत्रिक (Flawed Democracy) देशों की श्रेणी में रखा गया है। जहाँ तक स्कोर का सवाल है २००६ (2006) में स्कोर ७.६८% ( 7.68 %) से थोड़ा घटकर २०२१ (2021) में स्कोर ६.९१% (6.91%) है।अगर हम आय असमानता मेट्रिक्स या आय वितरण मेट्रिक्स ( Income inequality metrics) के मापदंडों पर हमारे देश को देखें तो हमारे देश की अर्थव्यवस्था में सबसे अमीर १०% (10%) की औसत आय का सबसे गरीब १०% (10% ) की औसत आय से अनुपात लगभग ३५.७% ( 35.7%) के साथ आय असमानता मेट्रिक्स पर औसत से कम के पायदान पर खड़ा है।चलिए थोड़ा इन आकड़ों को मद्दे नज़र रखते हुए शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, सर के ऊपर एक छत, कृषि प्रणाली, भुखमरी, कुपोषण जैसे आम इंसान के बुनियादी मुद्दों पर जरा ध्यान देते हैं। इन ७५ (75) सालों में केंद्र और राज्य स्तरों में राजनितिक बदलाव तो बहुत आयें हैं पर यह बदलाव क्या आम इंसान के जीवन स्तर में कोई सुधार ला पायें हैं ? क्या राजनितिक पार्टियों ने आम इंसान को सिर्फ एक वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया है? राजनीतिक दलों ने इन मुद्दों को गंभीरता से क्यों नहीं लिया? क्या गलत और सिमित राजनीतिक सोच इसका मूल कारण है? राजनेता और राजनीतिक दल सिर्फ सत्ता में ही प्रतिबंधित और परस्पर जुड़े हुए थे? चुनाव के दौरान बड़ी-बड़ी बातें और भाषण क्या सिर्फ सत्ता हथियाने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं ? प्रश्न तो बहुत सारे खड़े हो रहें हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के अनुसार हमारा देश जीडीपी के हिसाब से दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और क्रय शक्ति समानता (PPP) के हिसाब से तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।लेकिन इसके बावजूद हमारे देश में आय असमानता बहुत ही बड़े पैमाने में है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश की ५४ % (54%) संपत्ति करोड़पतियों द्वारा नियंत्रित है । सबसे अमीर १ % (1%) भारतीयों के पास लगभग ५८ % (58%) संपत्ति है, जबकि सबसे अमीर १० % (10%) भारतीयों के पास ८०% (80%) संपत्ति है। यह चलन लगातार बढ़ा है, जिसका अर्थ है कि अमीर गरीबों की तुलना में बहुत तेजी से अमीर हो रहे हैं और जिससे आय का अंतर लगातार बढ़ रहा है। अधिकांश देशों की तुलना में हमारे देश की अर्थव्यवस्था अपने सकल घरेलू उत्पाद ( GDP) में तेजी से बढ़ रही है। लेकिन राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद ( GDP) में वृद्धि देश में आय समानता का संकेत नहीं है। भारत में बढ़ती आय असमानता ने आम नागरिकों की शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, प्राथमिक चिकित्सा,पेयजल और स्वच्छता जैसी बुनियादी जरूरतों पर बहुत ही नकारात्मक प्रभाव डाला है। बढ़ती आय असमानता गरीबों के लिए आर्थिक सीढ़ी पर चढ़ना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन बना देती है। अगर हमारे देश की शिक्षा प्रणाली को जीविकोपार्जन के नज़रिए से देखें तो भी कहीं न कहीं हम बहुत पीछे चल रहें हैं । पिछले कुछ वर्षों के आंकड़े युवा बेरोजगारी में बड़ोतरी साफ दर्शाती नज़र आती है। यह स्पष्ट है कि हमारी शिक्षा प्रणाली युवाओं को ऐसा कौशल प्रदान नहीं कर रही है जिससे वे जीविकोपार्जन कर सकें। केंद्रीय और राज्य सरकारों द्वारा काफी खर्च किए जाने के बावजूद यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति मौजूद है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के मुताबिक, २०१९- २०२० (2019-20) में सरकारों ने शिक्षा पर जीडीपी का ३.३ ( 3.3) फीसदी खर्च किया। स्कूल जाने वाली उम्र की आबादी लगभग ४५.९ (45.9) करोड़ है। प्रति छात्र प्रति वर्ष १४, १९६ (14,196) रुपये प्रति छात्र खर्च किया जा रहा है। यह पैसा सरकारी शिक्षकों को मोटी तनख्वाह देने में खर्च किया जा रहा है। सरकार छात्रों को सरकारी स्कूलों में दाखिला लेने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए बिना शुल्क, मुफ्त किताबें और मध्याह्न भोजन जैसे आकर्षण दे रही है, लेकिन क्या उन्हें सही गुणवत्ता की शिक्षा मिलती है? सरकारों को इस शोचनीय परिस्तिथि को रोकने के लिए तत्काल सुधारात्मक कदम उठाने चाहिए नहीं तो “पड़ेगा इंडिया तो बड़ेगा इंडिया” महज एक स्लोगन बन के रह जायेगा। २०२०- २१ (2020-21) में, हमारे देश ने अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का १.८ % ( 1.8%) स्वास्थ्य पर खर्च किया। केंद्रीय बजट २०२१ -२२ (2021-22) के छह स्तंभों में से एक ‘स्वास्थ्य और कल्याण’ के साथ, सरकार ने अब सकल घरेलू उत्पाद का लगभग २.५ -३ % ( 2.5-3%) प्रतिबद्ध किया है। उपलब्ध आकड़ों से पता चलता है कि भारत में प्रति १००० (1,000) लोगों पर 1.4 बेड, १ ,४४५ (1,445) लोगों पर १ (1) डॉक्टर और प्रति १,००० (1,000) लोगों पर १.७ (1.7) नर्स हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO ) के अनुसार, भारत स्वास्थ्य व्यय में १९१ (191) देशों में से १८४ (184) वें स्थान पर है। भारत को एक व्यापक सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की सख्त जरूरत है। समय की मांग है कि एक नियामक हो जो राज्यों के साथ काम कर सके और यह सुनिश्चित कर सके कि अधिक स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों की उपलब्धता,अच्छी तरह से सुसज्जित सुविधाओं और बीमारी की रोकथाम सही दिशा से हो। सुविधाओं के मामले में राज्यों के बीच असमानता को कम करने की बहुत जरूरत है। समय की मांग यह भी है की एक अच्छी और सस्ती सरकारी स्वास्थ्य देखभाल सुनिश्चित की जाय क्योंकि निजी स्वास्थ्य सेवा (private health care) आम आदमी की पहुंच से बाहर है और हर साल बहुत सारे परिवार इस निजी स्वास्थ्य सेवा (private health care) के खर्च के चलते गरीबी रेखा के निचे चले जाते हैं। जहाँ हमारे देश की जीडीपी $3.469 trillion है और दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद २०२२ (2022) ग्लोबल हंगर इंडेक्स( Global Hunger index) में, भारत १२१ (121) देशों में से १०७ (107) वें स्थान पर है। २९.१ ( 29.1) के स्कोर के साथ, भारत में भुखमरी का स्तर बहुत ही गंभीर है। लेकिन जिस देश में अप्रैल २०२२ (2022) तक के उपलब्ध आकड़ों के अनुसार १६६ (166) अरबपति हैं जो देश को दुनिया में तीसरे स्थान पर रखते हैं एक बहुत ही गंभीर सवाल खड़ा कर दे रहा है की इस भुखमरी के पीछे कारण क्या है? क्या यह भुखमरी की परिस्थिति अपने आप में निर्णयकर्ता और कार्यान्वयनकर्ताओं (decision makers& implementers) के प्रति उंगली नहीं उठाती है। जहाँ से शुरू किया था फिर से उसे थोड़ा दोहराते हैं की एक सही लोकतंत्र में समाज के प्रत्येक सदस्य को अपने विकास की समान भौतिक सुविधाएँ मिलें। लोगों के बीच आर्थिक विषमता अधिक न हो । एक ओर घोर निर्धनता तथा दूसरी ओर विपुल संपन्नता के वातावरण में लोकतंत्रात्मक राष्ट्र का निर्माण शायद संभव नहीं है।
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