नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़, पटना : राजनेताओं के प्रति निराशा और लोकतंत्र के प्रति असंतोष के बीच संबंध एक जटिल और बहुआयामी मुद्दा है। राजनेताओं के प्रति निराशा और उनके व्यवहार की धारणाएं लोकतंत्र के प्रति नागरिकों की संतुष्टि को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करतीं हैं। जब लोग राजनीतिक नेताओं से कटा हुआ महसूस करते हैं या भ्रष्टाचार को महसूस करते हैं, तो इससे लोकतांत्रिक प्रणालियों में उनका विश्वास कम हो जाता है अनुसंधान इंगित करते हैं कि जब नागरिक अपने राजनीतिक प्रतिनिधियों से कटा हुआ या मोहभंग महसूस करते हैं, तो इससे लोकतांत्रिक संस्थानों और प्रक्रियाओं के प्रति व्यापक असंतोष पैदा हो सकता है। यह भावना अक्सर इस धारणा से उत्पन्न होती है कि राजनेता आम इंसान की बुनियादी मुद्दों को सही दिशा में सम्भोधित नहीं करते या इन्हे पूरी तरह से नज़रअंदाज करते हैं और सिर्फ अपने सत्ता की लोलुपता से बाहर नहीं आना चाहते । इस तरह के विचार पूरी व्यवस्था में विश्वास को कम कर सकते हैं, जिससे लोकतंत्र की प्रभावकारिता पर सवाल खड़े हो सकते हैं। हालाँकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि लोकतंत्र, शासन की एक प्रणाली के रूप में, चुनाव,न्यायतंत्र,नौकरशाही,विभिन्न विचारों का सम्मान करना, भ्रष्टाचार, जाँच जैसे तंत्रों के साथ लचीला और आत्म-सुधार करने के लिए डिज़ाइन किया गया है, और कानून के शासन का उद्देश्य ऐसी निराशाओं को दूर करना और कम करना है। इसके अलावा, लोकतंत्र के प्रति असंतोष नागरिक सहभागिता और सुधार प्रयासों को भी बढ़ावा दे सकता है, क्योंकि नागरिक उन बदलावों पर जोर देते हैं जो अधिक संवेदनशील और जवाबदेह शासन का नेतृत्व कर सकते हैं। इसलिए, जबकि राजनेताओं के प्रति निराशा लोकतंत्र के प्रति असंतोष में योगदान कर सकती है, यह लोकतांत्रिक नवीनीकरण और सुधार को भी प्रेरित कर सकती है। यह एक गतिशील संबंध है जो समाजों और उनकी राजनीतिक प्रणालियों के चल रहे विकास को दर्शाता है। हमारे देश में आर्थिक असमानता असंतोष का एक बड़ा मुद्दा है। सरकारें चाहे वह राज्य स्तर या केंद्रीय स्तर पर हों आम नागरिकों के लिए भी प्रतिस्पर्धात्मक आधार शुरू करने की बहुत सख्त जरूरत है। सरकारी स्कूलों और अंग्रेजी माध्यम से पड़ाने वाले प्राइवेट स्कूलों की गुणवत्ता में जमीन-आसमान का फर्क है इस फर्क को बहुत तीव्रता से कम करने की जरूरत है। सरकारें सरकारी स्कूलों के पीछे पैसे तो खर्च कर रही है पर अनुत्तरदायी शिक्षण पद्धति को एक सकारात्मक और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षण पद्धति में रूपांतर करने में बहुत हद तक असफल रही है जिसके चलते सरकारी स्कूलों और कॉलेजों से पास किये हुए युवा अक्सर रोजगार के बाजार में अंग्रेजी स्कूलों और कॉलेजों से पास युवाओं से बहुत पीछे रह जातें हैं। यही हाल सरकारी हस्पतालों का भी है मुफ्त तो हैं पर गुणवत्ता पूर्ण इलाज नहीं मिलता है जिसके कारण मजबूर होकर आम इंसानों को प्राइवेट हस्पतालों की और रुख करना पड़ता है। आकड़ों को माने तो हर साल करोड़ों परिवार प्राइवेट हस्पतालों में महँगे चिकित्सा कराने के कारण गरीबी रेखा से निचे चले जा रहें हैं और अक्सर यह देखने को मिलता है की राजनेता और राजनितिक दल आम नागरिकों के बुनियादी समस्याओं को समझने और उनपर सही दिशा में क्रियान्वयन करने में असफल होते हैं और बहुत हद तक इनको नज़रअंदाज़ भी करते हैं और यही धारणाएँ लोकतांत्रिक प्रदर्शन के बारे में लोगों के विचारों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। सिर्फ राजनेता ही नहीं सार्वजनिक कार्यालयों में सरकारी अधिकारी भी बहुत हद तक आम नागरिकों की परवाह नहीं करते हैं जिसके चलते लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के प्रति आम इंसान की एक नकारात्मक धारणा तैयार हो जाती है।
आपको क्या लगता है कि हमारे देश में लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं को सशक्त और काम करने के तरीके को और बेहतर कैसे बनाया जाये ?
यह प्रश्न हमने हाल ही में संपन्न हुये लोकसभा चुनावों के दौरान आम इंसानों के बीच काम करते हुये रखे थे। अधिकतर उत्तर जो समाज के हर स्तर के लोगों के बीच से उभर कर सामने आया वह यह की लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक प्रक्रियायों को और बेहतर या अलग सिर्फ राजनेताओं से बेहतर बनाया जा सकता है। लोग ऐसे राजनेता चाहते हैं जो उनकी ज़रूरतों के प्रति ज़्यादा संवेदनशील हों, उनकी रोजमर्रा की समस्याओं को समझें और उनपर सही दिशा में कार्यान्वयन हों और जो ज़्यादा सक्षम हों। अधिकांश लोगों ने लोकतंत्र को बेहतर बनाने के लिए राजनेताओं की भूमिका को ही सबसे अहम माना है। कुछ लोगों ने उच्च शिक्षित लोगों को राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करने पर भी अपना पक्ष रखा और कुछ लोगों ने कहा की उनके मौजूदा राजनेता बेहतर प्रदर्शन करें। ज्यादातर लोगों ने कहा की उनके नेता मतदाताओं की ज़रूरतों पर ज़्यादा ध्यान दें और उनकी समस्याओं के प्रति जवाबदेह हों। सुझावों के एक समूह में राजनीति में शामिल लोगों के प्रकार को बदलने पर भी जोर दिया। कुछ लोगों ने यह भी कह डाला की अगर आम नागरिकों को बड़े, राजनेताओं के बजाय संसद में चुना जाता, तो हमारा देश शायद रहने के लिए एक बेहतर जगह होता क्योंकि एक आम इंसान ही जानता हैं कि बेरोजगारी से जूझना, नौकरी पाना, गरीबी रेखा से नीचे रहना और सिमित आय पर परिवार चलाना कितना मुश्किल काम है। कुछ लोगों ने राजनीतिक नेताओं की विशाल संपत्ति पर भी सवाल उठाये हैं और यह पक्ष भी रखा की सरकार में जितने कम अमीर लोग जायेंगे उतनी सरकार आम इंसानों के लिये अच्छा काम करेगी। कुछ लोगों ने राजनेताओं की समग्र गुणवत्ता में सुधार पर भी सुझाव दिया और कहा की अगर नेता अच्छा है तो सुधार अवश्य होगा। लोग राजनेताओं के व्यक्तिगत चरित्र में भी बदलाव देखना चाहते हैं,जब हमें एक मजबूत और दृढ़ नेता मिलेगा जो लोगों के मुद्दों और समस्याओं को सबसे पहले रखता है, तो यह बेहतर होगा। कुछ लोगों ने कहा की सरकार को जमीनी स्तर पर आकर लोगों की आवाज़ सुननी चाहिए क्योंकि अधिकतर निचले स्तर पर लोगों की शिकायतों पर शायद ही कभी ध्यान दिया जाता है।
निष्कर्ष: हमने लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक प्रकियाओं के सुधार पर आम इंसानों के बीच सवाल रखे और हर तरह के सुझाव आये पर एक बात पर सब सहमत थे की सही दिशा में बदलाव और आम इंसान के जीवन स्तर में सुधार तो सिर्फ राजनेता ही ला सकते हैं चाहे वह बेरोजगारी, आर्थिक असमानता, सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, सस्ती गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सुविधाएं, बुनियादी ढांचे का विकास ( सड़कें, बिजली, पानी ) हों। शायद अब वक़्त आ गया है की प्रजातंत्र की नींव और लोगों की प्रजातंत्र और प्रजातान्त्रिक मूल्यों पर आस्था को और मजबूत करने के लिये राजनेताओं को अग्रसर होना पड़ेगा और आम इंसान से जुड़ी बुनियादी मुद्दों को वस्तुनिष्ठ, स्पष्ट रोडमैप ,समयबद्ध, परिणाम उन्मुख, जवाबदेह नौकरशाही ,जमीनी स्तर पर नीतियों का उचित क्रियान्वयन को सही दिशा में संबोधित करना पड़ेगा तभी जाकर लोगों की प्रजातंत्र के प्रति पूर्ण आस्था और प्रजातंत्र की नीवें मजबूत होंगी और सही मायने में सब का साथ और सब का विकास हो पायेगा।
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