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चुनावों में सिर्फ हुक्मरान बदलते हैं आम इंसान की नसीब और हैसियत नहीं चाहे वह महागठबंधन ( इंडिया) हो या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ?

नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़ :अल्लामा इक़बाल की शायरी शायद प्रजातंत्र को बहुत सठिक वर्णन करती है की “जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते”। पिछले सात दशकों से कितनी सरकारें आयीं और चली गयी। हर राजनितिक दल ने अच्छे दिनों के ख्वाब तो बहुत दिखाये पर हक़ीकत में आज भी आम इंसान अपनी न्यूनतम बुनियादी जरूरतों के लिए जदोजहद करने पर मजबूर है। “अच्छे दिन कब आएँगे क्या यूँ ही मर जाएँगे अपने-आप को ख़्वाबों से कब तक हम बहलाएँगे “। लोकतंत्र में सवाल केवल वोट पाने का नहीं है, बल्कि इसमें प्रत्येक नागरिक की संभावनाओं और समाज में जीवन के विमर्श में उसके सहभागी होने की क्षमताओं का सशक्तीकरण निहित है। लोकतंत्र कोई पूरा हो जाने वाला काम नहीं है। लोकतंत्र हमेशा चलते रहने वाला काम है जो एक राष्ट्र को करते रहना चाहिए। संविधान जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध लगाता है और सभी नागरिकों को मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है। हमारे देश में लोकतंत्र लोगों को अपनी सरकार के साथ मतदान के रूप में व्यक्तिगत स्तर पर शामिल होने का मौका देता है। लेकिन आज के राजनैतिक माहौल में यह सब कुछ थोड़ा फ़िल्मी डायलॉग सा नहीं लग रहा? ७०(70) साल की आजादी और एक जीवंत लोकतंत्र होने के बावजूद हमारा देश को दशकों से बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, कुपोषण,जातिवाद, भ्रष्टाचार, राजनितिक और जातिगत हिंसा और ध्रुवीकरण की चुनौतियों का सामना क्यों करना पर रहा है? लगातार हो रही आर्थिक वृद्धि के चलते आज हमारा देश विश्व में पांचवी बड़ी अर्थवस्था और शायद आने वाले कल में हमारे देश की अर्थव्यस्था नयी उंचाईयों को छू जाये। ऐसा नहीं है की सरकारों ने गरीबी हटाने का प्रयास नहीं किया है उपलब्ध सरकारी प्रबुद्ध मंडल (Think Tank ) नीति आयोग की नवीनतम गरीबी रिपोर्ट के अनुसार। हमारे देश ने बहुआयामी गरीबी को कम करने में उल्लेखनीय प्रगति की है, जिसमें ९.८९ (9.89) प्रतिशत अंकों की महत्वपूर्ण गिरावट देखी गई है। देश में बहुआयामी गरीब ( multi dimensional poverty ) व्यक्तियों की संख्या २०१५ -२०१६ (2015-16) में २४.८५ % (24.85%) से घटकर २०१९ – २०२१ (2019-21) में १४.९६%(14.96%) हो गई है।सरकारी प्रयास तो हैं पर शायद पूरी तरह कारगर नहीं हैं जिसके चलते पर अभी भी एक अच्छी खासी आबादी अत्यधिक गरीबी और न्यूनतम बुनियादी जरूरतों के अभाव में जी रहे हैं। भ्रष्टाचार और सत्ता की राजनीति लोकतांत्रिक मूल्यबोध और लोकतांत्रिक संस्थाओं से आम जनमानस का विश्वास लगातार कमजोर होता जा रहा है। राजनीतिक दल और नेता आम इंसान की भलाई के बजाय संकीर्ण हितों और सत्ता परस्थी में उलझे हुए हैं। हमारे देश में लोकतंत्र को लोगों की निरंतर सतर्कता, भागीदारी और सुधार करने की बहुत ही आवश्यकता है। लोगों की जिम्मेदारी है कि वे अपने नेताओं को जवाबदेह बनाएं, पारदर्शिता और न्याय की मांग करें । हमारे देश में लोकतंत्र के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह पिछले सात दशकों में सही मायनों में आर्थिक विकास देने में विफल रहा है। आर्थिक असमानता लोकतंत्र के मुलभुत सर्रचना पर ही सवालिया प्रश्न खड़ा कर रहा है। अमीर और अमीर बन रहें हैं और गरीब अत्यधिक गरीबी में धस्ता जा रहा है। इस आर्थिक असमता ने एक अभिजात वर्ग का इंडिया बना दिया है और मध्यम और गरीब वर्ग का भारत। हमारे राजनैतिक आकाओं ने इन सात दशकों में इस आर्थिक असमता की खाई को घटाने के बजाय और ज्यादा बड़ा दिया है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि हमारे राजनीतिक वर्ग और नौकरशाही ने कभी भी आर्थिक असमता के मुद्दे को निष्पक्ष और योजनाबद्ध तरीके से संबोधित नहीं किया है। देश के किसी कोने में अगर आप निर्वाचन की प्रक्रिया को जरा अवलोकन करें तो ज्यादातर राजनैतिक दल एक दूसरे पर आरोप और प्रत्यारोप की राजनीती में उलझे नज़र आयेंगे और भी दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है की जहाँ हमारा देश एक तरफ मजबूत अर्थनीति, चंद्रयान और बुलेट ट्रैन की तरफ बढ़ रहा रहा है वहीँ दूसरी तरफ एक बड़ा तबका इस उन्नति से बहुत दूर सिर्फ अपनी रोजी रोटी और न्यूनतम बुनियादी जरूरतों के लिये जदोजहद कर रहा है।  लोकतांत्रिक ढांचे में सत्ता परिवर्तन कोई बड़ी बात नहीं है  लेकिन मूल बुनियादी विषयों बेरोजगारी, स्वास्थ्य, शिक्षा, कुपोषण, कृषि, पर्यावरण संबंधी विपदा पर कोई भी राजनैतिक दल गंभीरता से नहीं सोचता है और न ही इन विषयों को एक समबद्ध तरीके से सही दिशा देने की कोशिश करता है । कागजों पर बनी नीतियां महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण यह है कि उक्त नीतियों को उचित तरीके से लागू किया गया है या नहीं और परिणाम को समयबद्ध और उद्देश्यपूर्ण तरीके से मापा गया है या नहीं। हमारे देश में समस्याएँ तो बहुमात्रिक हैं पर बेरोजगारी सबसे ज्यादा ज्वलंत मुद्दा है। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (Organisation for economic cooperation & development ) ने भविष्यवाणी की है कि भले ही देश की अर्थव्यवस्था स्वस्थ दर से बढ़ रही है लेकिन आने वाले कल में  बेरोजगारी दर में अच्छी खासी बड़ोतरी होने की आशंका है। अर्थव्यवस्था में रोजगारविहीन वृद्धि ( jobless growth in economy)। बेरोज़गारी एक टीकिंग टाइम बम है और यदि नीति निर्माताओं द्वारा उचित तरीके से इसका समाधान नहीं किया गया तो इसका बड़े पैमाने पर समाज पर गंभीर और नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

उपसंहार :आने वाले कल में सत्ता किसके हाथ में होगी महागठबंधन ( इंडिया) के या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के यह तो देश के भाग्यविधाता (आम इंसान) तय करेंगे  लेकिन शायद वक़्त आ गया है की हमारे देश का राजनीतिक वर्ग,जो नीति निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं, को यह समझने की आवश्यकता है कि कागजों पर नीति उद्देश्य के लिए पर्याप्त नहीं होगी, बल्कि विशिष्ट, समयबद्ध तरीके से लागू करने की आवश्यकता है और परिणामों को अतिशयोक्तिपूर्ण तरीके से नहीं बल्कि यथार्थवादी मापदंडों के आधार पर मापने की आवश्यकता है। आम इंसान से जुड़ी मूलभूत बुनियादी मुद्दों बेरोजगारी, स्वास्थ्य ,शिक्षा , कुपोषण को वस्तुनिष्ठ रूप से संबोधित करने की आवश्यकता है। यह कहना शायद गलत नहीं होगा की आज के राजनैतिक माहौल में दूध का धुला कोई भी नहीं है। आरोप और प्रत्यारोप की राजनीती जो शायद मुख्यधारा मीडिया के लिए टीआरपी का काम तो करती है पर इससे आम इंसान का कोई भला नहीं होता है।

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Nanda Dulal Bhatttacharyya

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पेशे से पत्रकार, निष्पक्ष, सच्ची और ज़मीन से जुड़ी रिपोर्टिंग का जुनून

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