नंद दुलाल भट्टाचार्य, हकीकत न्यूज़ , कलकत्ता : असंगठित औद्योगिक कार्यबल ने हमेशा भारतीय अर्थव्यवस्था में एक बड़ी भूमिका निभाई है। नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट( NSSO) के मुताबिक देश में असंगठित कामगारों की संख्या करीब ४३.७ (43.7) करोड़ है जबकि संगठित क्षेत्र के कामगारों की संख्या सिर्फ २.८ (2.8) करोड़ है। इस विशाल असंगठित श्रम शक्ति में से लगभग २४.६ (24.6) करोड़ लोग कृषि छेत्र में कर्मरत हैं। और ४.४ (4.4) प्रतिशत निर्माण उद्योग में कार्यरत हैं। बाकी लोकबल विभिन्न सेवा क्षेत्रों और विनिर्माण उद्योगों में कार्यरत हैं। भारतीय श्रम बाजार की तस्वीर की मुख्य विशेषताओं में से एक गैर-मान्यता प्राप्त (असंगठित ) क्षेत्रों की प्रधानता है। यद्यपि यह क्षेत्र देश के सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीडीपी) में ५० (50) प्रतिशत का योगदान देता है और यह घरेलू अर्थव्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्र के महत्व को दर्शाता है। कुल श्रम शक्ति का लगभग ९३ (93) प्रतिशत इस गैर-मान्यता प्राप्त (असंगठित) आर्थिक क्षेत्र में लगा हुआ है। देश के लगभग सभी महत्वपूर्ण राज्यों में असंगठित श्रम शक्ति की तस्वीर करीब करीब एक जैसी है। संगठित क्षेत्र में रोजगार की वृद्धि दर हमेशा देश में कुल रोजगार की वृद्धि से कम रही है। इससे पता चलता है कि गैर-मान्यता प्राप्त क्षेत्रों में रोजगार कितनी तेजी से बढ़ रहा है। विवरण यह भी दर्शाता है कि मान्यता प्राप्त क्षेत्र में भी गैर-मान्यता प्राप्त/असंगठित श्रमिकों की संख्या बढ़ रही है। और शायद हमारा देश अब ‘मान्यता प्राप्त क्षेत्रों (संगठित क्षेत्र) से गैर-मान्यता प्राप्त (असंगठित क्षेत्र) की ओर बहुत तेज गति से बढ़ रहा है। नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्टें के अनुसार यह कहा जा सकता है की भारत के श्रम बाजार में एक बड़ा बदलाव आया है। निजी घरेलू क्षेत्र की गतिविधियों में वृद्धि हुई है। आजीविका की गुणवत्ता में काफी गिरावट आई है (नौकरी की सुरक्षा और शर्तों सहित)। ट्रेड-यूनियन कमजोर हो गए हैं, सामूहिक सौदेबाजी प्रणाली, अन्य सामाजिक सुरक्षा तंत्र काफी कम हो गए हैं। यह बड़े पैमाने पर वैश्वीकरण की प्रक्रिया और उत्पादन लागत को कम करने के लिए नियोक्ताओं के प्रयासों के कारण है। नतीजतन, श्रम बाजार का अधिकांश हिस्सा घरेलू क्षेत्र में स्थानांतरित हो गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत में असंगठित क्षेत्र की भूमिका और महत्व को समझना कितना महत्वपूर्ण है। इस असंगठित क्षेत्र में हर वक़्त काम नहीं मिलता है ।इनमें से अधिकांश अस्थायी या ठेका श्रमिक हैं, उत्पादन संगठन और औद्योगिक संबंधों की स्थिति बहुत खराब है। कोई सामाजिक सुरक्षा और कल्याण नियम नहीं हैं, सामाजिक सम्मान और श्रमिकों के अधिकारों की उपेक्षा की जाती है और अक्सर देखने को मिला है की श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी से वंचित किया जाता है और उनका मनमाने ढंग से शोषण किया जा सकता है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के अनुसार, भारत में लगभग तीन करोड़ श्रमिक काम की तलाश में इधर-उधर घूमते हैं। और २००० (2000) के बाद से, अतिरिक्त लगभग २६ (26) लाख महिला श्रमिक देश के श्रम बाजार में शामिल हो गई हैं। वैश्वीकरण के आगमन और उत्पादन के संबद्ध पुनर्गठन के साथ, एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जहां उत्पादन प्रणाली स्थानीय हो गई है और इसका कोई मूल्य नहीं है। श्रम बल का प्रयोग अधिक लचीली शर्तों पर किया जाने लगा है। अस्थायी और अंशकालिक श्रमिकों में वृद्धि हुई है । इस स्थिति के पीछे श्रम लागत में कटौती करके प्रतिस्पर्धी बाजार में जीवित रहने का प्रयास है। निस्संदेह, यह श्रम शक्ति नौकरी की सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से बहुत नाजुक है। मौजूदा श्रम कानूनों में श्रमिकों के लिए प्रदान किया गया कोई भी सुरक्षा उपाय उन पर लागू नहीं होता है। ऐसे आधुनिक गैर-मान्यता प्राप्त क्षेत्रों में श्रमिकों के बीच असुरक्षा और नाजुकता बढ़ रही है। एक कारण यह है कि इस क्षेत्र में श्रमिकों को संगठित करने और उन्हें सामूहिक सौदेबाजी प्रणाली में लाने की प्रक्रिया विभिन्न कारणों से कमजोर है। गैर-मान्यता प्राप्त क्षेत्र में हालिया वृद्धि ने अधिकांश श्रमिकों के रोजगार और आय सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। साथ ही, सामाजिक कल्याण और सुरक्षा प्रणालियों की गुणवत्ता में भी कमी आई है। असंगठित छेत्र में कामगारों की संख्या बहुत अधिक है, जिसके कारण वे पूरे भारत में फैले हुए हैं। कार्य स्थान अत्यधिक बिखरा हुआ और अलग-थलग है। कोई स्थायी नियोक्ता-कर्मचारी संबंध नहीं है।असंगठित क्षेत्र के कामगार ज्यादातर स्थानीय कर्जदारों के चुंगल में आ जातें हैं क्योंकि उनकी आय जीविकोपार्जन के लिए पर्याप्त नहीं है। उन्हें मान्यता प्राप्त क्षेत्र की तुलना में बहुत कम मजदूरी मिलती है और उनके काम करने की स्थिति भी बहुत खराब है। असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए बनाए गए कानून संगठित क्षेत्र के कानूनों की तुलना में अपर्याप्त और अप्रभावी हैं।असंगठित क्षेत्र में ट्रेड यूनियन आंदलनों का बहुत कम प्रभाव रहा है। भारत के संविधान के प्रारूपण के दौरान, सामाजिक सुरक्षा को केंद्र और राज्यों की संयुक्त जिम्मेदारी के रूप में सातवीं अनुसूची के तीसरे भाग के तहत रखा गया था। भारतीय संविधान में सामाजिक सुरक्षा के लिए कई निर्देशक सिद्धांत शामिल हैं। इन नीतियों को लागू करने के लिए कई प्रकार के कानून बनाए गए हैं। और यह कहा भी जाता है कि ये कानून असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लागू होते हैं, लेकिन असंगठित क्षेत्र में इन कानूनों का वास्तविक योगदान बहुत कम है। असंगठित श्रमिकों और ग्रामीण गरीबों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए बहुत कुछ नहीं किया गया है, लेकिन हाल ही में हमारे देश ने इस दिशा में कुछ काम शुरू किया है। केंद्र और राज्य सरकारों ने असंगठित श्रमिकों के लाभ के लिए कुछ योजनाएं शुरू की हैं, हालांकि ये आवश्यकता से बहुत कम हैं। बहुप्रचारित राष्ट्रीय ग्रामीण आय सुरक्षा योजना 2005 ((MGNREGA)) को इस दिशा में एक शुरुआत कहा जा सकता है। लेकिन फिर भी, यह योजना सभी राज्यों में समान वेतन प्रदान नहीं करती है। यह वेतन योजना में नामांकित श्रमिकों को अधिकतम १०० (100) दिनों के लिए ही उपलब्ध है। शेष वर्ष के बारे में क्या? यह अधिनियम ग्रामीण क्षेत्रों में १०० (100) दिनों की नौकरी की गारंटी प्रदान करता है। लेकिन शहर के असंगठित श्रमिकों और गरीब लोगों का क्या होगा? । स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी क्या हमारे देश के असंगठित क्षेत्र के श्रमिक पचास साल पहले अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन (ILO) कन्वेंशन में निर्धारित न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा और कानूनी अधिकारों के हकदार नहीं हैं? अधिनियम तो बहुत बनें हैं पर क्या वह सही दिशा में अमल में लाया जा रहा है। वास्तव में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए भोजन, पोषण, स्वास्थ्य, आवास, नौकरी के अवसर, आय, जीवन सुरक्षा और वृद्धावस्था सुरक्षा को कवर करने वाले कमजोर सैद्धांतिक कानून तो हैं पर उनका भी सही तरीके से किसी भी असंगठित क्षेत्र में अमल नहीं किया जाता है। इस क्षेत्र में सही कानून और उनका सही तरीके से अमल का बहुत अभाव है। दुर्भाग्य की बात यह है की हमारा देश जब आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है लेकिन कृषि, निर्माण उद्योग, और विभिन्न सेवा क्षेत्रो से जुड़े करोड़ों असंगठित क्षेत्र के श्रमिक अभी भी न्यूनतम बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए जद्दोजहद कर रहें हैं। हमारे देश का “लोकतंत्र” राजनीतिक दलों द्वारा चलाया जाता है और कहीं न कहीं जो कॉर्पोरेट शक्ति से बहुत अधिक प्रभावित होते हैं। सरकारें इन बड़ी-बड़ी औद्योगिक कंपनियों और विदेशी निवेशकों के लिये रेड कार्पेट तो बिछातीं हैं लेकिन करोड़ों असंगठित मजदूरों की पुकार सुनने वाला कोई नहीं है। १९२० (1920) में भारत में स्थापित होने वाला पहला ट्रेड यूनियन फेडरेशन अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस ( AITUC) से लेकर अबतक लगभग १६,१५४ (16,154) पंजीकृत ट्रेड यूनियन होने के बावजूद असंगठित छेत्र के श्रमिकों की दुर्दशा और हालात में कोई सुधार नहीं आया है। ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व को भी संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के साथ साथ असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की दिशा में सक्रिय कदम उठाने की बहुत जरूरत है। क्योंकि आने वाले कल में बिना असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के ट्रेड यूनियन आंदोलन महज एक कॉस्मेटिक परत की तरह रह जायेगा।
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