नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़, इंडिया, भारत : इज़रायली-फ़िलिस्तीनी संघर्ष का इतिहास १९ (19)वीं सदी के उत्तरार्ध से मिलता है जब ज़ायोनीवादियों ( Zionists ) ने ओटोमन-नियंत्रित फ़िलिस्तीन में यहूदी लोगों के लिए एक मातृभूमि स्थापित करने की मांग की थी। ब्रिटिश सरकार द्वारा जारी १९१७ (1917) की बाल्फोर घोषणा ने फिलिस्तीन में एक यहूदी मातृभूमि के विचार का समर्थन किया, जिसके कारण इस क्षेत्र में भारी संख्या में यहूदी प्रवासियों की आमद ( inflow) हुई। द्वितीय विश्व युद्ध और नरसंहार के बाद, फिलिस्तीन में एक यहूदी राज्य की स्थापना के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ गया जिसके परिणामस्वरूप १९४८ (1948) में इज़राइल का निर्माण हुआ। इज़राइल की स्थापना और उसके बाद और उससे पहले हुए युद्ध के कारण हजारों फिलिस्तीनियों का विस्थापन हुआ जो शरणार्थी बन गए, जिससे कारण इज़राइल और फिलिस्तीनी लोगों के बीच दशकों तक संघर्ष का एक दौर चला। हमास का गठन १९८७ (1987) के अंत में पहले फिलिस्तीनी इंतिफादा (विद्रोह) की शुरुआत में हुआ था। इसकी जड़ें मुस्लिम ब्रदरहुड की फ़िलिस्तीनी शाखा में हैं और इसे फ़िलिस्तीनी क्षेत्रों के अंदर एक मजबूत सामाजिक-राजनीतिक संरचना का समर्थन प्राप्त है। समूह का चार्टर इज़राइल के स्थान पर एक इस्लामी फिलिस्तीनी राज्य की स्थापना का आह्वान करता है और पीएलओ ( PLO )और इज़राइल के बीच किए गए सभी समझौतों को खारिज करता है। हमास की ताकत गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक के क्षेत्रों में केंद्रित है। हमास की एक सैन्य शाखा है जिसे इज़ अल-दीन अल-क़सम ब्रिगेड के नाम से जाना जाता है। समूह ने २००६ (2006) की शुरुआत में फिलिस्तीनी क्षेत्रों में विधायी चुनाव जीते, जिससे फिलिस्तीनी प्राधिकरण पर धर्मनिरपेक्ष फतह पार्टी की पकड़ समाप्त हो गई । हमास ने इज़राइल के खिलाफ हिंसक प्रतिरोध को पहचानने या त्यागने से इनकार करना जारी रखा। पिछले कुछ वर्षों में कई शांति वार्ताएँ हुई हैं लेकिन एक स्थायी शांति समझौता और इस मसले का कोई स्थायी समाधान नहीं हो पाया है। इज़राइल और फिलिस्तीनी समूह हमास के बीच चल रहे युद्ध ने मध्य पूर्व की भू-राजनीतिक स्थिरता पर अनिश्चितता की छाया डाल दी है। कच्चे तेल पर निर्भरता और इजराइल के साथ मजबूत व्यापारिक संबंधों को देखते हुए यह घटनाक्रम न केवल वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए बल्कि भारत के लिए भी बहुत चिंताजनक है। इस संघर्ष का तात्कालिक प्रभाव तेल की कीमतों में वृद्धि होने के आसार हैं। इससे हमारे देश पर भी गहरा असर पड़ सकता है क्योंकि भारत दुनिया में कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा आयातक है। तेल की कीमतों में बड़ौतरी अक्सर हर चीज की कीमतों पर असर डालती हैं और यह उस देश के लिए अच्छी खबर नहीं है जो तेल आयात पर बहुत अधिक निर्भर करता है । कच्चे तेल की ऊंची कीमतें भारत पर नकारात्मक आर्थिक प्रभाव डाल सकती हैं जहां बढ़ती ऊर्जा लागत के कारण कई क्षेत्र पहले से ही दबाव में हैं। कच्चे तेल की कीमतों में किसी भी तरह की बढ़ोतरी से मुद्रास्फीति को बढ़ावा मिल सकता है और आर्थिक विकास को धीमा कर सकता है। इज़राइल के साथ भारत के बीच घनिष्ठ व्यापारिक संबंध हैं। भारत एशिया में इजराइल का तीसरा सबसे बड़ा और विश्व स्तर पर सातवां सबसे बड़ा व्यापार भागीदार है। विदेश मंत्रालय के अनुसार, दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार फार्मास्यूटिकल्स, कृषि, जल, आईटी और दूरसंचार जैसे कई क्षेत्रों में विविध हो गया है । भारत से इज़राइल को होने वाले प्रमुख निर्यातों में कीमती पत्थर और धातुएँ, रासायनिक उत्पाद और वस्त्र शामिल हैं। दूसरी ओर, इज़राइल से भारत को होने वाले प्रमुख निर्यात में मोती और कीमती पत्थर, रासायनिक और खनिज/उर्वरक उत्पाद, मशीनरी और विद्युत उपकरण, पेट्रोलियम तेल, रक्षा, मशीनरी और परिवहन उपकरण शामिल हैं। इसलिए, इज़राइल और हमास के बीच संघर्ष में कोई वृद्धि इन दोनों देशों के बीच उनके व्यावसायिक हितों को काफी हद तक नुकसान पहुँचा सकती है, जिससे उद्योगों का व्यापक स्पेक्ट्रम प्रभावित हो सकता है। वित्त वर्ष २०२२-२३ (2022-23) में, भारत ने इज़राइल को लगभग ७.८९ (7.89) बिलियन डॉलर का निर्यात किया था और भारत को इज़राइल ने लगभग २.१३ ( 2.13) बिलियन डॉलर का निर्यात किया था। भारत और इजराइल की कुल व्यापार राशि लगभग १० (10) बिलियन डॉलर से अधिक थी। भारत ने इज़राइल में भी पर्याप्त निवेश किया है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, अप्रैल २००० (2000) से मई २०२३ (2023) के दौरान भारत से प्रत्यक्ष निवेश लगभग ३८३ (383) मिलियन डॉलर था। इज़राइल-हमास संघर्ष सिर्फ एक क्षेत्रीय मुद्दा नहीं है इसके और बढ़ने से भारत सहित दुनिया भर के कई देशों पर भारी नकारात्मक आर्थिक प्रभाव पड़ सकता है।
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