नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़, पूर्वी चंपारण, बिहार : हमारे देश की स्वास्थ्य सेवा परिदृश्य विरोधाभासी परिदृश्यों का एक स्पेक्ट्रम प्रस्तुत करता है। स्पेक्ट्रम के एक छोर पर निजी अस्पताल (private hospitals) चमकदार स्टील और कांच की संरचनाएं हैं जो संपन्न, पैसे वाले ज्यादातर शहरी नागरिकों को अच्छी और उच्च तकनीकी चिकित्सा प्रदान करती हैं, तो दूसरे छोर पर गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए जर्जर सरकारी हॉस्पिटल्स हैं जहाँ न्यूनतम स्वास्थ्य परिसेवा के लिये घंटो लाइन में खड़े रहने के बावजूद स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता बहुत ही निराशाजनक है। दूर-दराज ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य उपकेंद्रों की दशा तो क्या कहने अगर स्वास्थ्य उपकेंद्र उपलब्ध भी है तो उसकी गुणवत्ता क्या है ? क्या वहां स्वास्थ्य सेवाएं निरंतर उपलब्ध है? जबकि राष्ट्रीय (ग्रामीण) स्वास्थ्य मिशन ने भारत सरकार की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए बहुत कुछ किया है लेकिन फिर भी कई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) में बिस्तर,वार्ड, शौचालय, पेयजल, प्रसव के लिए स्वच्छ प्रसव कक्ष और नियमित बिजली जैसी बुनियादी ढांचागत सुविधाओं का अभाव है पर क्यों? वर्तमान में हमारे देश की आर्थिक उन्नति में जो तीव्र गति देखी जा रही है लेकिन इस आर्थिक उन्नति का प्रभाव ज्यादातर गरीब और मध्यम वर्ग जो इन सरकारी हस्पतालों पर निर्भर हैं कोई फायदा नहीं पहुंचा रहा है। हमारे देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य की एक गौरवशाली परंपरा रही है। जैसा कि सिंधु घाटी सभ्यता (5500-1300 ईसा पूर्व) के विवरणों के संदर्भ में देखा गया है, जिसमें “आरोग्य” का उल्लेख “समग्र कल्याण” को प्रतिबिंबित करने के रूप में किया गया है। चीनी बौद्ध यात्री फाहियान (ईस्वी 399-414) इसे आगे बढ़ाते हुए उस समय उपचारात्मक देखभाल के लिए उत्कृष्ट स्वास्थ्य सुविधाओं पर टिप्पणी भी की है। लेकिन आज के सन्दर्भ में सरकारी सार्वजनिक स्वास्थ्य परिसेवायें जिनपर देश का गरीब और मध्यम वर्ग निर्भर करता है बहुत ही निराशाजनक हैं और सार्वजनिक सरकारी स्वास्थ्य परिसेवाओं की निम्नगामी स्तर के चलते हमारे देश की लगभग ६६ (66) प्रतिशत आबादी निजी अस्पताल( प्राइवेट हॉस्पिटल्स) या क्लिनिक में इलाज कराने पर मजबूर हो रही है। केवल ३३ (33) प्रतिशत ग्रामीण आबादी और २६ (26) प्रतिशत शहरी आबादी इलाज के लिए सार्वजनिक क्षेत्र ( सरकारी हस्पतालों )पर निर्भर है जिनके पास किसी प्रकार का वित्तीय विकल्प नहीं है। जब हम अपनी आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं लेकिन इन ७५( 75) वर्षों में “हर किसी” को सार्वजनिक तौर पर न्यूनतम गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य परिसेवायें प्रदान करने में असफल क्यों हैं ? क्या चुनौतियाँ हैं जिनमें आर्थिक रूप से अक्षम (मध्यम वर्ग और प्रणालीगत रूप से हाशिए पर रहने वाले लोग) शामिल हैं ? क्या चीज हमें ” गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य परिसेवा ” आम लोगों तक पहुंचाने से रोक रही है। हमारे देश में निजी क्षेत्र ( प्राइवेट हैल्थकेयर) अधिकांश स्वास्थ्य व्यय के लिए जिम्मेदार है लेकिन राज्य संचालित स्वास्थ्य क्षेत्र अभी भी देश के अधिकांश ग्रामीण और उप-शहरी क्षेत्रों के लिए एकमात्र विकल्प है। ग्रामीण छेत्रों में प्रसव के समय एक चिकित्सकीय रूप से प्रशिक्षित व्यक्ति की कमी अक्सर देखने को मिलते हैं। भारत सरकार के ग्रामीण स्वास्थ्य आंकड़ों २०१५ (2015) के अनुसार, सहायक नर्स दाइयों के स्वीकृत पदों में से लगभग 10.4% खाली हैं। पीएचसी में सत्ताईस प्रतिशत डॉक्टरों के पद खाली थे, जो स्वीकृत पदों के एक चौथाई से अधिक हैं। इसमें कोई दो राय नहीं की हमारे देश में निजी क्षेत्र (प्राइवेट हैल्थकेयर) स्वास्थ्य सेवा वितरण में प्रमुख खिलाड़ी है। हाल के कुछ सालों में सरकार द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने के लिए निजी विशेषज्ञता का उपयोग करने के उद्देश्य से कई कार्यक्रम चलाए गए हैं। नवीनतम प्रस्तावित नई राष्ट्रव्यापी योजना है जो निजी प्रदाताओं को सरकार द्वारा प्रति पूर्ति योग्य सेवाएँ प्रदान करने के लिए मान्यता देती है। लेकिन क्या यह जिम्मेदारी के हस्तांतरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की कमियों की स्वीकृति का प्रतिनिधित्व नहीं करता है? एक अनुमान के अनुसार लगभग पांच करोड़ पच्चास लाख (55 million ) भारतीयों को अपनी स्वास्थ्य देखभाल के लिए धन खर्च करने हेतु एक ही वर्ष में गरीबी के दल-दल में फँस जाते हैं और उनमें से लगभग तीन करोड़ अस्सी लाख (38 million) अकेले दवाओं पर खर्च करने के कारण गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं । नवीनतम राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफ़ाइल (एनएचपी) 2018 के अनुसार, भारत सबसे कम सार्वजनिक स्वास्थ्य खर्च वाले देशों में से एक है। हम दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और चंद्रमा पर उतरने वाला चौथा देश बन गए हैं, लेकिन अगर हम अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली (Government hospitals) पर नजर डालें तो हम इसे निराशाजनक ही कह सकते हैं। यह सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की दुर्दशा किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है हर राज्य में एक ही चित्र उभर कर आ रहा है लेकिन बड़ा सवाल यह है कि जब हम वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक प्रमुख खिलाड़ी बन सकते हैं? चाँद को छू सकते हैं तो अहम बुनियादी मुद्दा “सार्वजनिक स्वास्थ्य परिसेवाओं” में बदलाव क्यों नहीं ला सकते? शायद राज्य और केंद्र के हुक्मरॉनों को थोड़ा वस्तुनिष्ठ तरीके से सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली ( Government Hospitals) की दुर्दशा पर नज़र देने की जरूरत है।
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