नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हकीक़त न्यूज़, पश्चिम बंगाल : कुछ साल पहले तक, भारतीय जनता पार्टी पूर्वोत्तर राज्यों में एक अस्तित्व विहीन राजनितिक दल था । लेकिन हाल की बात करें तो यह एक ऐसी पार्टी बनकर उभरी है जो लगातार चुनाव जीतकर इस क्षेत्र पर अपना एक मजबूत छाप छोड़ने में कामयाब रही है।इन २०२३ (2023) के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी त्रिपुरा और नागालैंड में फिर से अपनी पकड़ बनाए रखने में कामयाब रही और मेघालय में यह एक क्षेत्रीय पार्टी के साथ गठबंधन करने के बाद सत्ता में भागीदारी की तरफ अग्रसर हो रही है । जहाँ नागालैंड की कुल जनसंख्या का ८७.९ % ( 87.9 %) ईसाई है और दूसरी तरफ त्रिपुरा में लगभग ३१.८ % ( 31.8%) आदिवासी हैं। हाल में इन ईसाई और आदिवासी बहुल राज्य में भारतीय जनता पार्टी द्वारा यह निश्चित रूप से एक अभूतपूर्व प्रदर्शन था। वस्तुनिष्ठ रणनीति बनाने और स्थानीय जरूरतों के अनुरूप अपने कदमों को पुनर्गठित करने से बीजेपी को पूर्वोत्तर में अच्छा प्रदर्शन करने में मदद मिली है। वैसे इस पूरी प्रक्रिया में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का अच्छा खासा योगदान रहा है खासकर त्रिपुरा राज्य में। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) दशकों से इस क्षेत्र के आदिवासियों के साथ काम कर रहा है और आदिवासियों के बीच एक अच्छा रिश्ता बनाने में कामयाब रहा है। अगर हम पूर्वोत्तर राज्य में भाजपा के चुनावी नतीजों को देखें तो – २०१६ (2016) में असम, 2017 में मणिपुर, 2018 में त्रिपुरा। फिर २०२१ (2021) में असम, २०२२ (2022) में मणिपुर और २०२३ (2023) त्रिपुरा में अपनी पकड़ बरकरार रखने में कामयाब रहा । विधानसभा चुनावों का नवीनतम दौर पूर्वोत्तर में कांग्रेस के लुप्त होते पदचिन्हों को प्रकट करता है। उत्तर-पूर्व में तीन राज्यों में कांग्रेस पार्टी की हार जिस क्षेत्र में दशकों से उनका दबदबा रहा है,यह दर्शाता है कि भारत जोड़ो यात्रा के बावजूद अपनी राजनीतिक जमीन को फिर से हासिल करने के लिए कांग्रेस पार्टी को अभी भी शायद बहुत कुछ करना बाकी है। त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय के चुनावी परिणामों की तरफ देखें तो यह कांग्रेस दल के लिए काफी निराशाजनक रहें हैं। अगर हम त्रिपुरा के चुनावी परिणामों को थोड़ा सूक्ष्म तरीके से देखें तो कहीं न कहीं आम जन मानस ने वामपंथी और कांग्रेस के बीच गठबंधन को काफी हद तक नकार दिया है, जो उन्होंने पहले पश्चिम बंगाल के चुनावों में और अब त्रिपुरा में प्रयोग किया, लेकिन यह प्रयोग चुनावी नतीजों में अपनी छाप छोड़ने में पूरी तरह विफल रही। इस २०२३( 2023) के त्रिपुरा विधान सभा चुनाव में, कांग्रेस और वाम दलों के साथ चुनावी गठबंधन के बावजूद और कांग्रेस १३ (13) सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद सिर्फ तीन सीटों पर ही जीत हासिल कर पायी है । पूर्वोत्तर में, जहां तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए,कांग्रेस को त्रिपुरा में तीन सीटें मिली हैं और मेघालय में सिर्फ पांच सीटें जितने में कामयाब रही। कांग्रेस पूर्वोत्तर में अपने प्रदर्शन को भविष्य को ध्यान में रखते हुए पेश करने की कोशिश कर रही है, हालाँकि, चुनावी परिणाम वास्तव में कांग्रेस का जमीनी स्तर पर आम जन मानस में कमजोर पकड़ और राज्य स्तर पर सक्रिय और प्रभावी नेतृत्व की कमी को और इशारा कर रही हैं, परिणाम स्वरूप कांग्रेस पार्टी का घोषणा पत्र और कार्यशैली सही तरह से आम जन मानस तक नहीं पहुँच रही है जिसके फलस्वरूप अनुकूल रूझानों के बावजूद अपेक्षित चुनाव परिणाम नज़र नहीं आ रहें हैं। दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का जमीनी स्तर पर प्रभावी संचार और जनता के साथ मजबूत व्यक्तिगत बंधन का निर्माण भारतीय जनता पार्टी के लिए अच्छे परिणाम दे रहा है। पूर्वोत्तर में निराशाजनक प्रदर्शन के बीच उपचुनाव के नतीजों से थोड़ी उम्मीद की किरण जरूर नज़र आती है । पश्चिम बंगाल में कांग्रेस ने सागरदिघी सीट पर ५१ (51) साल बाद 22,986 मतों से जीत हासिल की। यह सीट २०२१ (2021) में तृणमूल कांग्रेस ने ५०,२०६ (50,206) वोटों के अंतर से जीती थी। कांग्रेस पार्टी ने २८ (28) साल के अंतराल के बाद भाजपा से महाराष्ट्र में कस्बा सीट जीती है, इसके अलावा तमिलनाडु के इरोड (पूर्व) में एक शानदार जीत दर्ज की है। कई अन्य राज्यों की तरह, कांग्रेस ने २०१४ (2014) से उत्तर-पूर्व राज्यों में लगातार गिरावट देखी थी और इन राज्यों में हावी होने की भाजपा की आक्रामक रणनीति के आगे कांग्रेस काफी हद तक पीछे छूट जा रही है। लेकिन आने वाले २०२३ ( 2023) में कर्नाटक, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम के चुनावों में जीत सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस दल को बहुत ही गंभीर रूप से विचार करना होगा । इन राज्यों के चुनावी नतीजे आने वाले २०२४ ( 2024) के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारतीय जनता पार्टी के समक्ष एक प्रमुख राजनीतिक चुनौती के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने के लिए बहुत निर्णायक कारक होंगे । मौजूदा चुनावी नतीजों को देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी के लिए कोई खास चुनौती नज़र नहीं आ रही है। राष्ट्रीय स्तर पर एक विश्वसनीय नेतृत्व की बहुत जरुरत है जो आने वाले २०२४( 2024) के लोकसभा चुनाव में एक सही राजनितिक विकल्प दे सकें क्योंकि लोकतंत्र में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यबोध को सही दिशा देने के लिए एक मजबूत विपक्ष का होना बहुत ही जरुरी है। क्षेत्रीय दल चाहे जितना भी उछल लें उनका कोई राष्ट्रीय पदचिन्ह नहीं है और न ही कोई राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति। राष्ट्रीय स्तर पर राजनितिक विकल्प सिर्फ कांग्रेस दल ही दे सकती है। अब देखना यह है की आने वाले कल में भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गाँधी की राष्ट्रीय स्तर पर एक विश्वसनीय नेता के रूप में स्वीकृति को सामने रखकर कांग्रेस दल जमीनी स्तर और चुनावी नतीजों पर अपनी कितनी पकड़ मजबूत कर पाती है और क्या एक मजबूत राष्ट्रीय राजनितिक विकल्प के रूप में उभर कर आ पाती है या भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में फिर से सरकार बनाने में कामयाब होती है यह तो आने वाला वक़्त ही बतायेगा।
उपसंहार : उपचुनावों में जीत कुछ हद तक नैतिक बढ़ावा देने का काम जरूर कर सकते हैं , लेकिन सत्ता परिवर्तन के लिए जमीनी स्तर पर ठोस रणनीति और सही रणकौशल (strategies & tactics) की बहुत ही आवश्यकता है। ट्विटर यूनिवर्सिटी में ज्ञान बाटने से शायद कुछ हद तक कुछ लोगों की वाहवाही मिल सकती है पर आम जनमानस पर इसका कुछ खास प्रभाव नज़र नहीं आता है और न ही चुनावी प्रक्रिया में इसका कोई असर पड़ता है। उपचुनाव के नतीजों को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक संगठनों को जमीनी स्तर पर काम करने की बहुत ही जरूरत है। आज का मतदाता अपनी भलाई के बारे में काफी जागरूक है और केवल नारों और उग्र भाषणों से प्रभावित नहीं होगा। उन्हें प्रभावित करने के लिए राजनीतिक दलों को एक उचित, सक्रिय विकास रोडमैप पेश करने की आवश्यकता है। ट्विटर यूनिवर्सिटी, नकारात्मक राजनितिक टिप्पणियों, स्लोगनों, भाषणों से बाहर आकर संगठन के हर स्तर के नेतृत्व को आम जन मानस के बुनियादी मुद्दों और रोजमर्रा के जद्दोजहद को ध्यान में रखकर एक सकारात्मक राजनितिक विकल्प देने की सख्त जरुरत है ।
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