नन्द दुलाल भट्टाचार्य, हक़ीकत न्यूज़, कलकत्ता : श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था के पतन की हालिया खबरों ने राज्य की भूमिका पर एक नई बहस को जन्म दिया है। श्रीलंका की सरकार ने करों में कटौती और कई मुफ्त की रेवड़ी और सेवाएं आम इंसान को प्रदान कीं। मूलतः यह राजनितिक दलों का सत्ता में बने रहने के लिये चुनावी मनलुभावन वादों का नतीजा रहा है। इसका कितना फायदा आम इंसानों तक पहुंचा और इससे आम नागरिक का जीवन स्तर कितना बड़ा इस पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा है। लेकिन इसका प्रभाव श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पर बहुत ही बुरा पड़ा और अर्थव्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई और भारी कर्ज के चलते श्रीलंका के पास अपनी प्रतिबद्धताओं पर चूक करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। भारत श्रीलंका का पड़ोसी देश होने के नाते और श्रीलंका की आर्थिक परिस्थिति को देखते हुये यह मुद्दा अब हमारे देश में भी चर्चा का विषय बन गया है,और चर्चा होनी भी चाहिये। हाल ही में हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी यह मुफ्त की रेवड़ी बाटने की राजनीती पर अपने विचार व्यक्त किये। हमारे देश की राजनीती में भी कई राजनितिक दलों द्वारा यह मुफ्त की रेवड़ी बाटने की परंपरा चली आ रही है और राजनीति का एक अभिन्न अंग बन गए हैं। चाहे चुनावी लड़ाई में वादे करने के लिए हो या सत्ता में बने रहने के लिए मुफ्त सुविधाएं प्रदान करने के लिए। राजनीतिक दल आम नागरिक के वोटों को अपने पक्ष में सुरक्षित करने के लिए मुफ्त बिजली, पानी की आपूर्ति, बेरोजगारों, दिहाड़ी मजदूर और महिलाओं के लिए भत्ता और साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक गैजेट जैसे लैपटॉप, स्मार्टफोन, साइकिल, और कर्ज माफ़ी आदि की पेशकश करने का वादा करते हैं। लेकिन अगर हम पिछले ३० (30) वर्षों में बढ़ती आर्थिक असमानता को मद्दे नज़र रखते हुये यह सब्सिडी के रूप में आम इंसान को थोड़ी राहत शायद अनुचित नहीं हो सकती है।
सब्सिडी और मुफ्त की रेवड़ी में अंतर
आर्थिक अर्थों से मुफ्त के प्रभावों को समझने और इसे करदाताओं के पैसे से जोड़ने की जरूरत है। सब्सिडी और मुफ्त की रेवड़ी में अंतर करना भी आवश्यक है क्योंकि सब्सिडी उचित और विशेष रूप से लक्षित लाभ हैं जो मांगों से उत्पन्न होते हैं। यद्यपि प्रत्येक राजनीतिक दल को लक्षित जरूरतमंद लोगों को लाभ देने के लिए सब्सिडी पारिस्थितिकी तंत्र बनाने का अधिकार है । ऐसे कुछ उदाहरण हैं जो दिखाते हैं कि कुछ व्यय वाकई में विकास को सुगम बनाने और नागरिक जीवन स्तर को और सक्षम बनाने में सहायता करते हैं, जैसे कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली ( Public Distribution system ) रोजगार गारंटी योजनाएं, शिक्षा के लिए सहायता और स्वास्थ्य के लिए विशेष रूप से महामारी के दौरान परिव्यय में वृद्धि। ये जनसंख्या की उत्पादक क्षमता को बढ़ाने में एक लंबा रास्ता तय करते हैं और एक स्वस्थ और मजबूत कार्यबल बनाने में मदद करते हैं, जो किसी भी विकास रणनीति का एक आवश्यक हिस्सा है। भारत जैसे देश में जहां राज्यों में विकास का स्तर बहुत ही अनिश्चित है और अभी भी ऐसे लोगों का एक बड़ा समूह है जो गरीबी रेखा से नीचे हैं। देश की विकास योजना में सभी लोगों को शामिल करना भी जरूरी है। मुफ्त या सब्सिडी की विवेकपूर्ण और समझदार पेशकश, जिसे राज्यों के बजट में आसानी से समायोजित किया जा सकता है, ज्यादा नुकसान नहीं करती है और इसका लाभ उठाया जा सकता है। आदर्श रूप से, संसाधनों के बेहतर समग्र उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए राज्य व्यय का एक अनुपात निर्धारित किया जाना चाहिए। यह सब्सिडी कहीं ना कहीं कम विकसित राज्यों की मदद करता है, जहाँ एक बड़े हिस्से की आबादी गरीबी से पीड़ित हो इस तरह की मुफ्त सुविधाएं या सब्सिडी एक आवश्यकता हो जाती हैं ।
यह मुफ्त की रेवड़ी या सब्सिडी राज्यों की वित्तीय स्थिति पर कितना प्रभाव डालते हैं ?
मुफ्त सुविधाएं या सब्सिडी देने से, अंततः, सरकारी खजाने पर प्रभाव पड़ता है और भारत के अधिकांश राज्यों में एक मजबूत वित्तीय स्वास्थ्य नहीं है और अक्सर राजस्व के मामले में बहुत सीमित संसाधन होते हैं। यदि राज्य कथित राजनीतिक लाभ के लिए पैसा खर्च करना जारी रखते हैं, तो उनका वित्त गड़बड़ा जाएगा और राजकोषीय लापरवाही प्रबल होगी। राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) नियमों के अनुसार राज्य अपनी सीमा से अधिक उधार नहीं ले सकते हैं और किसी भी विचलन को केंद्र और केंद्रीय बैंक द्वारा अनुमोदित किया जाना है। इसलिए, जबकि राज्यों के पास इस बारे में लचीलापन है कि वे अपना पैसा कैसे खर्च करना चुनते हैं, वे सामान्य परिस्थितियों में अपनी घाटे की सीमा से अधिक नहीं हो सकते हैं। ऋण-से-जीएसडीपी (debt-to-GSDP)अनुपात यह दर्शाता है कि भविष्य के ऋण को जमा किए बिना अपने व्यय के वित्तपोषण के मामले में राज्य कितना स्वस्थ है। नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) के राज्य वित्त के आंकड़ों पर एक सरसरी नज़र से पता चलता है कि कुछ राज्यों के लिए, पिछले पांच वर्षों में ब्याज भुगतान राजस्व की तुलना में तेजी से बढ़ा है, एक ऋण जाल बना रहा है और उनके ऋण को अस्थिर बना रहा है। एक रिपोर्ट में, भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने राज्यों के बजट की समीक्षा करते हुए कहा कि १८ (18) राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए ऋण-से-जीएसडीपी ( Debt to GSDP ) अनुपात पिछले १० (10) सालों में में 22.6 प्रतिशत से बढ़कर 31.2 प्रतिशत हो गया है और कुछ राज्यों में तो यह लगभग 40 प्रतिशत तक पहुँच गया है जो अर्थशास्त्रियों के अनुसार बहुत ही गंभीर चिंता का विषय है। आज के दौर में कोरोना महामारी के चलते विश्व के बहुत सारे देश आर्थिक मंदी से जूझ रहे हैं और आर्थिक जानकारों के अनुसार कई प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं साल भर में सरकारी नीतियों और बढ़ती जीवन लागत के बीच मंदी में प्रवेश करेंगी, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को मंदी का सामना भी करना पर सकता है। और यही कारण है कि राज्यों को कड़े आर्थिक अनुशासन में आवश्यक सब्सिडी की सावधानीपूर्वक पहचान करने और गैर-जरूरी मुफ्त की रेवड़ी से परहेज करने की आवश्यकता है।
मुफ्त की रेवड़ी कल्चर में राजनेताओं की कितनी हिस्सेदारी है ?
हमारे विशेषाधिकार प्राप्त राजनेताओं को मूल वेतन के अलावा बहुत सारे भत्ते और मुफ्त सुविधाएं सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाती है। इनमें मुफ्त हवाई या रेल यात्रा, टेलीफोन कॉल, ब्रॉडबैंड साथ ही उनके दिल्ली के विशाल घरों में मुफ्त पानी और बिजली का कोटा शामिल है। इसके अलावा मुफ्त चिकित्सा और पेंशन संबंधी लाभ भी मिलते हैं। सेवानिवृत्त सदस्यों को भी पेंशन और मुफ्त चिकित्सा की सुविधा उपलब्ध है।
एक राष्ट्र जो विरासत में मिलने वाली समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढ पाता वह कभी भी विकास नहीं कर सकता है। अर्थतंत्र सदैव परिवर्तनशील रहने वाली प्रक्रिया है जो सतत रूप से खुद को नए-नए रूपों में ढालती चलती है। इस अर्थ में आर्थिक निर्णय और सुधार कोई छोटी दौड़ नहीं बल्कि एक मैराथन रेस है। इस सिलसिले में एक राष्ट्र की आर्थिक यात्रा के विभिन्न चरणों में अलग-अलग प्रकार के आर्थिक सुधारों की ज़रूरत पड़ती है ताकि सुधार की अगली प्रक्रिया को सही आकार मिल सके।
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